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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष:
एतेनेदमपि प्रत्युक्तम् 'ज्ञानं परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतम् , विशेषगुणत्वे सति प्रदेशवृत्तित्वात् , शब्दवत् ।' अत्रापि ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वे सति ततः शब्दस्य तत्सिद्धिः, तत्सिद्धेश्च ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यप्तमवेतत्वसिद्धिरितोतरेतराश्रयदोषः । न च दृष्टान्तान्तरमस्ति यतोऽन्यतरप्रसिद्ध र यमदोष स्यात् । ज्ञानस्य चात्मनोऽव्यतिरेकित्वे तव्यापित्वम् , 'यद् यस्मादव्यतिरिक्तं तत् तत्स्वभावं यथाऽऽत्मस्वरूएम , आत्माऽव्यतिरिक्तं चैतत् , ततस्तव्यापि' इति न प्रदेशवृत्तित्वम् । तथापि तवृत्तित्वे ज्ञानेतरस्वभावतयाऽऽत्मनोऽनेकान्तसिद्धिः । व्यतिरेके आत्म गुणत्ववदन्यगुणत्वस्याप्यप्रतिषेधाद् विशेषगुणत्वाऽसिद्धिः।
व्यतिरेकाऽविशेषेऽप्यात्मन एव गुणो ज्ञानं नाकाशादेरिति किकृतोऽयं विशेषः ? 'समवायकृत.' इति चेत् ? न, तस्यापि ताभ्यामन्तिरत्वे तदवस्थो दोषः, व्यतिरेके समवायस्य सर्वत्राऽविशेषाद न ततोऽपि विशेषः । अव्यतिरेके तस्यैवाऽभाव इति न ततो विशेषः । न च समवायः संभवति इति प्रति
पर यह निवेदन है कि चेतन और अचेतनों में सत्ता यदि एक ही होती तब तो चेतनअचेतन पदार्थों में एकरूप से होने वाली 'सद' वृद्धि की विषयता से द्रव्यादि में भिन्नसत्ता का सम्बन्ध मिद्ध किया जा सकता था, किन्तु हमें यह कहना है कि चेतन और अचेतनों में रहने वाली सत्ता एक नहीं है किन्तु चेतनगत सत्ता के तुल्य अन्य सत्ता हो अचेतनों में रहती है-इस बात का हम आगे निर्णय करायेगे जब सामान्य सदृशपरिणामरूप ही है इस के प्रतिपादन का अवसर आयेगा। निष्कर्ष, शब्द में गुणत्व ही सिद्ध नहीं है, फलत: आकाश रूप दृष्टान्त में 'नित्य होते हुए हम लोगों को उपलब्ध होने वाले गुण (शब्द) का आश्रय होने से ' ऐसा हेतु भी असिद्ध है, तो फिर हेतुशून्य आकाश के दृष्टान्त से आत्मा में विभुपरिमाण की सिद्धि कैसे होगी?
[ आत्मविभुत्वसाधक अन्य अनुमान का निरसन ] उपरोक्त चर्चा से अब यह भी निरस्त हो जायेगा जो नैयायिकों ने कहा है कि-ज्ञान परममहत्परिमाणवाले द्रव्य में समवेत है चूंकि वह विशेषगुण होते हुए प्रदेश वृत्ति वाला है [ यानी अव्याप्यवृत्ति है ], जैसे शब्द । यह अनुमान इस लिये निरस्त है कि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगा है-ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि होने पर ज्ञान के दृष्टान्त से शब्द में उसकी सिद्धि होगी और शब्द में उसकी सिद्धि के आधार से ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि हो सकेगी-स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय हो जाता है। शब्द से भिन्न तो कोई इन्टान्त खोजा नहीं गया जिसके आधार पर ज्ञान या शब्द में साध्य की सिद्धि करके अन्योन्याश्रय दोष को हठाया जा सके।
तदुपरांत, यह भी सोच सकते हैं कि ज्ञान आत्मा से अपृथक है या पृथक् है ? यदि अपृथक होगा तब तो आत्मवत् वह भी व्यापक ही होगा, नियम:-जो जिससे अपृथक् होता है वह उसके स्वभावरूप यानी तद्रप होता है जैसे आत्मा और उसका स्वरूप । ज्ञान भी आत्मा से अव्यतिरिक्त (अपृथक) है अत: आत्मवत् व्यापक ही सिद्ध होगा। फलतः, ज्ञान में प्रदेशवृत्तित्व ही नहीं रहा फिर भी यदि उसे प्रदेशवत्ति मानेंगे तो आत्मा में ज्ञान स्वभाव तो है ही और ज्ञान के प्रदेशवृत्तित्व के बल से ही उसमें ज्ञानेतरस्वभाव भी सिद्ध होने से अनेकान्तवाद की ही विजय होगी। यदि ज्ञान को आत्मा से पृथक् माना जाय तो इस पक्ष में, वह जैसे आत्मा का गुण माना जाता है वैसे अन्य द्रव्य का भी माना जाय तो कौन निषेध कर सकेगा? फलत: वह सामान्य गुण बन जायेगा, विशेषगुण नहीं रहेगा।
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