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प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे पूवपक्ष:
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यदि पुनविपक्षे हेतोरदर्शनमात्रादेव ततो व्यावृत्तिस्तथा सति-[श्लो० वा० अ०७-३६६]
बेदाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा । इत्यस्यापि विपक्षेऽदर्शनात ततो व्यावृत्तिसिद्धिरित्यपौरुषेयत्व सिद्धेर्न तस्येश्वरप्रणीतत्वं स्यात् ।
धर्माऽधर्मादेश्चास्मदाधप्रत्यक्षत्वे 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्त: पश्वादयो देवदत्तगुणाकृष्टाः, देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्वात, यद् यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत् तत् तद् देवदत्तगुणाकृष्टं यथा. ग्रासादिः, तथा च पश्वादयः, तस्माद् देवदत्तगुणाकृष्टाः' इत्यनुमानमसंगतं स्यात, व्याप्तेरग्रहणात । तथाप्यनुमाने यतः कुतश्चिद् यकिंचिदवगम्येत । ग्रासादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्नगुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिप्रदर्शनात तस्यैव तत्पूर्वकत्वानुमानं स्यात , तस्य च वैयर्थ्यम् ।
अथ पश्वादेरपि देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्नसमानगुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिः प्रतीयते तहि प्रयत्नसमानगुणस्य पश्वादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य वाऽप्रतिपत्तो कथं तदाकृष्ट त्वेन व्याप्तिसिद्धिः ? नहि प्रयत्नाऽप्रतिपत्तौ तदाकृष्टत्वेन प्रतिपन्नस्य ग्रासादेदेवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य व्याप्तिप्रतिपत्तिः । तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमश्च यदि तेनैवानुमानेन, अन्योन्याश्रयदोष - व्याप्तिसिद्धावनुमानम् ततश्च व्याप्ति
कि-शब्द में नित्यत्व के संदेह से कृतकत्व हेतु में भी ऐसे संदिग्ध विपक्षव्यावृत्ति दोष लगाया जा सकेगा।-तो यह अयक्त है क्योंकि कृतकत्व को विपक्षभूत नित्य-गगनादि में वत्ति मानने में बलवान बाधक प्रमाण की सत्ता है जब कि वह प्रस्तुत हेतु में नहीं है ।
[ अदर्शनमात्र से विपक्षनिवृत्ति असिद्ध ] विपक्ष में अदशनमात्र से यदि हेतु की वहाँ से निवृत्ति हो जाती हो तब तो मीमांसकों का जो यह अनुमान है-सकल वेदाध्ययन वेदाध्ययनपूर्वक ही होता है क्योंकि वह वेदाध्ययनपदवाच्य है जैसे कि आधुनिक वेदाध्ययन । तो इस अनुमान में भी हेतु का अदर्शनमात्र विपक्ष में सुलभ होने से विपक्ष से उसकी व्यावृत्ति सिद्ध होने पर अपौरुषेयत्वसिद्धि नैयायिक को भी हो जायेगी। फिर वेद ईश्वररचित नहीं माना जा सकेगा।
तथा धर्माधर्मादि को यदि आप हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते हैं तो निम्नोक्त अनुमान असंगत हो जायेगा-देवदत्त के प्रति खिचे जा रहे पशु आदि देवदत्त के गुण (धर्म) से आकृष्ट हैं, क्योंकि वे देवदत्त के प्रति ही खिचे जा रहे हैं जो जो देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले होते हैं वे देवदत्त के गुण से (चाहे प्रयत्न से या धर्म से) आकृष्ट होते हैं जैसे कवलादि । पशु आदि भी वैसे ही हैं अतः वे देवदत्त के ही गुण से आकृष्ट सिद्ध होते हैं" [ पशु आदि के खिचाने में प्रयत्न तो बाधित है इसलिये अदृष्ट धर्मगुण सिद्ध होगा]-किन्तु यह अनुमान संगत नहीं होगा क्योंकि यहाँ साध्य देवदत्तगुण धर्मादि है और उसके साथ व्याप्ति का ग्रहण किया नहीं है। व्याप्तिग्रहण के विना भी अनुमान करना हो तब तो किसी भी वस्तु से जिस किसी का अनुमान करते ही रहो। आपकी दिखायी हुई व्याप्ति में तो देवदत्त के प्रति ग्रासादि के उपसर्पण में देवदत्तप्रयत्नगुणाकृष्टत्व का सहचार ही दिखाया है अत: पक्ष में भी देवदत्त के ( अष्ट) प्रयत्न गुणाकृष्टत्व ही सिद्ध हो सकेगा, और वह तो आपके लिये व्यर्थ है।
यदि कहें-देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले पशु आदि में देवदत्त के 'प्रयत्न जैसे (अन्य किसी) गुण से आकृष्टत्व' की व्याप्ति प्रतीत होती है-तो यहाँ प्रश्न है कि प्रयत्न जैसा कोई गुण और देवदत्त के
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