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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे पूर्वपक्षः ५४५ षत्वाद , आत्मनोऽनुकलाभिमानजनिताभिलाषवत्" इत्यस्य च विरोधः, यतो योऽसौ परस्यानुकूलेष्वनुकुलाभिमानजनिताभिलाषोत्पादित आत्मविशेषगुणो नासावभिलषितुराभिमुख क्रियाकारणम् , तत्समानतत्कारणत्वात् , यश्च तत्क्रियाकारणम् नासौ यथोक्ताभिलाषेणारब्ध इति। तथा प्रवर्तक-निवर्तकाविच्छा-द्वेषनिमित्तौ धर्माऽधमौं, अव्यवधानेन हिताऽहितविषयप्राप्तिपरिहारहेताः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वान, प्रवर्तकनिवर्तकप्रयत्नवत' इत्यत्र हेतोळभिचारश्च, जन्मान्तरफलप्रदयोधर्माधर्मयोरव्यवधानेन हिताहितप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वेऽपीच्छा-द्वेषजनितत्वाभावात् । किंच, धर्मादिवद् अपरापरतत्कार्योत्पत्तिप्रसंगश्च । ततो न शब्दात शब्दोत्पत्तिवद् धर्मावर्धर्माधुत्पत्तिः, तस्य क्षणिकत्वे न जन्मान्तरे ततः फलमित्यक्षणिकत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यमतस्तेन व्यभिचारी हेतुः । साध्यद्रोही नहीं बनेगा। तथा धर्माधर्म को क्षणिक मानने पर हेतु में 'हम लोगों को प्रत्यक्ष साथ' ऐसा जो विशेषण लगाया है वह व्यवच्छेद्य के अभाव से निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि धर्मादि का ही उससे व्यवच्छेद शक्य था और आपको तो वह इष्ट नहीं है। [धर्मादि में क्षणिकत्व नहीं हो सकता ] तथा धर्मादि को भी यदि क्षणिक मान लेगे तो अपनी उत्पत्ति के बाद त्वरित ही उसका ध्वंस हो जाने पर उससे जन्मान्तर में फल प्राप्त न होगा । यदि उसके लिये सतत पूर्वपूर्व धर्मादि से अन्य अन्य धर्म की उत्पत्ति मानते रहेंगे तो आपके सिद्धान्त का भंग होगा। उपरांत आपके ही निम्नोक्त धर्मसाधक अनुमान में विरोध आयेगा - "पर व्यक्ति को अनुकूल पदार्थों के विषय में अनुकूलता के अभिमान से उत्पन्न जो अभिलाष है वह अभिलाषकर्ता की अर्थाभिमुख क्रिया के कारणभूत आत्मा के विशेष गुण (धर्म) की आराधना = उत्पत्ति करता है क्योंकि वह अनुकूल पदार्थविषयक अनुकूलताभिमानजन्याभिलाषात्मक है । जैसे कि अपना अनुकूल (भोग्य )पदार्थ विषयक अनुकूलत्वाभिमानजनित अभिलाष अपनी भोग्यपदार्थग्रहणाभिमुखक्रिया के जनक आत्मगुण विशेष (प्रयत्न) की आराधना करता है।" इसमें विरोध इसलिये है कि अनुकूलवस्तुविषयक अनुकूलत्वाभिमानजन्याभिलाष से उत्पन्न जो आत्मविशेषगुण (धर्म) है वह अभिलाषकर्ता की अर्थाभिमुख क्रिया का साक्षात् कारण नहीं है किन्तु उस विशेषगुण से उत्तर उत्तर क्षणों में उत्पन्न सजातीय धर्मादि ही उस क्रिया का साक्षात् कारण है। वह जो सजातीय धर्मादि उस क्रिया का कारण होता है वह तो पूर्वक्षण वाले धर्मादि से ही उत्पन्न हुआ है अतः वह पूर्वोक्त अभिलाष से उत्पन्न नहीं है। इस प्रकार प्रयत्न के दृष्टान्त से आत्मविशेषगुणरूप मे धर्म की सिद्धि के लिये प्रयुक्त अनुमान में विरोध आ पड़ेगा। [धर्माधर्म में इच्छा-द्वेषनिमित्तकत्व-अभाव की आपत्ति ] तदुपरांत, आपके निम्नोक्त अनुमान में हेतु साध्यद्रोही सिद्ध होगा। अनुमान-'प्रवर्तक और निवर्तक धर्म अधर्म (क्रमश ) इच्छा एवं द्वेष के निमित्त से जन्य होते हैं क्योंकि व्यवधान (अंतर) के विना हितप्राप्ति-अहितपरिहारसमर्थ कर्म (क्रिया) का कारण होते हुए वे आत्मविशेषगुणरूप होते हैं, उदा० प्रवर्तक-निवर्तक प्रयत्न ।' यहाँ हेतु साध्यद्रोही इस प्रकार है जन्मान्तर में फलप्रद जो धर्माधर्म हैं ( वे पूर्व क्षण के धर्माधर्म से उत्पन्न हैं ) उनमें व्यवधान के विना हितप्राप्ति-अहितपरिहारसमर्थ क्रिया की उत्पादकता के साथ साथ आत्मविशेषगुणरूपता यह हेतु तो है, किन्तु उन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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