________________
प्रथम खण्ड-का० १- शासन प्रणयनोपपत्ति:
अस्याभिप्रायः यद्यपि सर्वज्ञताप्रतिबन्धिधातिकर्मचतुष्टयक्षयाविर्भू त केवलज्ञानसम्पदो जिना - स्तथापि भवोपग्राहिशरीर निबन्धनस्य कर्मणः सद्भावादल्पस्थितिकस्य न शरीराद्यभावात् शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, नापि रागादिलेशसद्भावात् तत्प्रणीतस्यागमस्याप्रामाण्यम्, विपर्यास हेतोर्घातिकमणोऽत्यन्तक्षयात् न च कर्मक्षयादपरस्थाप्रवृत्तिनिमित्तत्वम् भवोपग्राहिणोऽद्यापि सामस्त्येनाऽक्षयात् तत्क्षये चारवर्गस्यानन्तरभावित्वात् कर्मक्षयस्यैवापवर्गप्राप्ताव विकलकारणत्वादिति ।
५३१
श्रवयवार्थस्तु - तिष्ठन्ति सकलकर्मक्षयावाप्तानन्तज्ञानसुखरूपाध्यासिताः शुद्धात्मानोऽस्मिन्निति स्थानं लोकाग्रलक्षणं विशिष्टक्षेत्रम् न विद्यत उपमा स्वाभाविकात्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन च सर्वसुखातिशायित्वाद् यस्य तत् सुखमानन्दरूपं यस्मिन् तत् तथा, तत् 'उप' इति कालसामीप्येन गतानां = प्राप्तानां यद्वा 'उप' इत्युपसर्गः प्रकर्षेऽप्युपलभ्यते यथा "उपोढरागेण" इति । तेन स्थानमनुपमसुखं प्रकर्षेण गतानामिति । "परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि तमर्थ गमयन्ति" इति न्यायादनुभूयमानतीर्थकृन्नामकर्मलेशसद्भावेऽपि तद् गता इव गता इत्युक्तास्तेन शासनप्रणेतृत्वं तस्यामवस्थायां तेषामुपपन्नमेव ।
तया विजय नहीं किया है अतः मोक्षप्राप्ति के पूर्व में ही शासन की स्थापना करते हैं- इस में कोई दोष नहीं है' तो उस शासन में ऐकान्तिक प्रामाण्य नहीं घटेगा चूँकि वह आंशिकरागलिप्त पुरुष से उपदिष्ट है, जैसे कि कपिलादिऋषिपुरुषों का शासन ।
समाधान: इस शंका के समाधानार्थ सूरीश्वर श्री सिद्धसेनदिवाकरजी ने प्रथम मूलकारिका में जिनेन्द्र के विशेषणरूप में 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा प्रयोग किया है ।
[ सावशेष अघातिकर्ममूलक शासनस्थापना की संगति ]
अभिप्राय यह है कि यद्यपि जिनेन्द्र भगवान के सर्वज्ञताप्रतिबन्धक घाति चार कर्म - ज्ञानावरणदर्शनावरण- मोहनीय और अंतराय कर्म, संपूर्ण क्षीण हो जाने से केवलज्ञान ( = सर्वज्ञता ) की सम्पत्ति प्राप्त हो चुकी है; फिर भी अल्पकालीन संसारस्थिति के तथा देहादिअवस्थान कारणभूत अघाति भग्राही आयुषादि कर्म (क्षयाभिमुख होने पर भी ) संपूर्णतया क्षीण न होने से शरीरादिअभावमूलक शासनस्थापना में कोई असंगति नहीं है । तथा मोहनीय के क्षय से रागादि संपूर्ण क्षीण हो गये हैं, अत: 'उसके आंशिक रह जाने से उसका स्थापित आगम प्रमणाभूत न होने' की भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि आगम में वैपरीत्य ( = अयथार्थत्व) के हेतु घाति कर्म ही हैं और वे तो संपूर्ण क्षीण हो गये हैं । किसी भी व्यक्ति की प्रवृत्ति सर्वथा बन्द हो जाने में संपूर्ण कर्मक्षय ही निमित्तभूत है, दूसरा कोई नहीं । जिनेद्र भगवान जब शासनस्थापना करते हैं तब उनके संपूर्ण कर्म क्षीण हुए नहीं रहते है । और जब ( शासन स्थापना के बाद ) वे कर्म संपूर्ण क्षीण हो जाते हैं उसी वक्त जिनेन्द्र भगवान को मोक्षलाभ भी हो जाता है। तात्पर्य, संपूर्णकर्मक्षय ही मोक्षप्राप्ति का परिपूर्ण कारण है ऐसा हमारा सिद्धान्त है ।
Jain Educationa International
[ शासनस्थापना कार्य की उपपत्ति अबाधित ]
ठाणमणोवम० इसका शब्दार्थ इस प्रकार है- सकलकर्मों का क्षय कर के प्राप्त किये गये अनन्तज्ञान-अनन्तसुखस्वरूप से आश्लिष्ट शुद्धात्मा जहाँ जा कर रहते हैं वह 'स्थान' है, वह एक विशिष्ट क्षेत्र है जो लोक के उदूर्ध्व अग्रभागरूप है । तथा, ऐसा सुख जो स्वाभाविक, आत्यन्तिक
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org