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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उ० पक्षः ५२१ ऽऽयत्तफलप्रदस्य रागादियोगः नण्यम् सेवाऽऽयत्तता च प्रतीता तथेशस्याप्येतत् सर्वमभ्युपगमनीयम् , अन्यथाभूतस्यान्मपरिहारेण क्वचिदेव सेवके सुखादित्वानुपपत्तेः । तदेवं कर्मपरतन्त्रत्वे तस्यानीशत्वम् , करुणाप्रेरितस्य कर्तृत्वे "सृजेच्च शुभमेव सः" इति वात्तिककारीयदूषणस्य व्यवस्थितत्वम् । यच्च 'नारक-तिर्यगादिसर्गोऽध्यकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनविशिष्टस्थानावाप्तावभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुखिप्राणिसृष्टावपि करुणया प्रवर्तनमीशस्य' इति, तदपि प्रतिविहितमेव, यतः कर्म प्राणिनां दुःखप्रदं विधाय तत्फलोपभोगविधानद्वारेण क्षयनिमित्तं प्राणिनामभ्युदयं विदधतस्तस्याऽशुचिस्थानपतितगृहीतप्रक्षालितमोदकत्यागविधायिनो (?ना) (न? )समानबुद्धित्वप्रसक्तिः । अपि च, यदि प्राणिकर्मपरवशस्तेषां दुःखादिकं तत्क्षयनिमित्तप्रायश्चित्तकल्पमुपजनयतीत्यभ्युपगमस्तदा तत्कर्मकार्यत्वं तस्य प्रसक्तम्-तत्कृतोपकाराभावे तदपेक्षाया अयोगात् , उपकारस्य च तत्कृतस्य तद्भवे तेन सम्बन्धायोगात् , अभिन्नस्य तत्करणे तस्यैव करणमिति कथं न तत्कार्यत्वम् ? पहले तो जीवों के कर्मों का सृजन करता है फिर उपभोग के द्वारा उनका ध्वंस करवाता है, किंतु बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला गोप आदि कोई भी विना प्रयोजन वस्तुनिर्माण कर के उसका ध्वंस नहीं. करता है। इसलिये कर्मों की अधीनता से करुणापूर्वक ईश्वर प्राणिओं को दुःख उत्पन्न करता है यह बात श्रद्धय नहीं है। [ ईश्वर में कर्मपरतन्त्रता की आपत्ति ] तदुपरांत, कर्मों की अधीनता से ईश्वर जीवों को दुःख उत्पन्न करता है इसलिये कृपालुता खंडित नहीं होती- इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप जीवशरीर के उत्पादक ईश्वर को कर्मपरतन्त्र मानते हैं-इससे तो यह मानना अच्छा है कि कर्मफल के उपभोग करने वाले जीव ही कर्म की अधीनता से अपने अपने दु:खों के उत्पादक होते हैं, क्योंकि दुःख के कर्ता जीवसमूह प्रसिद्ध है, अत: अप्रसिद्ध ईश्वर की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। तथा यह जो आपने कहा है-मालिक जैसे भिन्न भिन्न प्रकार की सेवा को लक्ष्य में रख कर भिन्न भिन्न फलदाता होता है, भिन्न फलदातृत्व से उसकी मालिकी मिट नहीं जाती, इसी तरह महेश्वर भी कर्म को लक्ष्य में रखकर फलदाता माना जाय तो उसके प्रभुत्व की कोई हानि नहीं होती-[ पृ. ४०६ ] यह भी अघटित है, क्योंकि सेवाधीन फल देने वाले राजादि में जैसे रागादियोग, निर्दयता और सेवापरतन्त्रता अनिवार्य है। उसी तरह ईश्वर में भी ये सब मानने होंगे। यदि ईश्वर सेवापरतन्त्र नहीं होगा तो वह किसी एक सेवाकादि को ही सुख प्रदान करे और सेवा न करने वाले को सुख प्रदान न करे ऐसा पक्षपात घटेगा नहीं। निष्कर्ष, ईश्वर को कर्मसापेक्ष कर्ता मानने में ऐश्वयं खण्डित होगा और यदि करुणामूलक कर्तृत्व मानेंगे तो श्लोकवात्तिककारने जो यह दूषण दिया था [ द्र०पृ० ४०६ ] कि 'एकमात्र सुखात्मकसर्ग का ही वह सृजन करेगा' वह तदवस्थ ही रहेगा। [ दुखसृष्टि में करुणामूलकता की असंगति ] तथा यह जो कहा था [ ४०७/२]-नारक-तिर्यचादि गति का उत्पादन भी प्रायश्चित्त न करने वालों को वहाँ दुःखानुभव के पश्चात् विशिष्ट स्थान की प्राप्ति द्वारा आबादी का ही परम्परया हेतु हैअत: यह सिद्ध हुआ कि दुखी जीवों को सृष्टि में भी ईश्वर की प्रवृत्ति करुणामूलक ही है-इसका तो प्रतिकार हो ही चुका है। कारण, ईश्वर पहले जीवों के दुःखप्रद कर्म का सृजन करता है, बाद में जीवों को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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