SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२० सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड - १ यच्च ' कारुण्यात् तस्य तत्र प्रवृत्तिः' इत्यादि, तदप्यनालोचिताभिधानम् न हि करुणावतां यातनाशरीरोत्पादकत्वेन प्राणिगणदु खोत्पादकत्वं युक्तम् । न च तथाभूतकर्मसव्यपेक्षस्तथा तेषां दुःखोत्पादकोsसौ निमित्तकारणत्वात् तस्येति वक्तुं युक्तम्, तत्कर्मण ईश्वरानायत्तत्वे कार्यत्वे च तेनैव कार्यस्वलक्षणस्य हेतोर्व्यभिचारित्वप्रसंगात् । तत्कृतत्वे वा कर्मणोऽभ्युपगम्यमाने प्रथमं कर्म प्राणिनां विधाय पुनस्तदुपभोगद्वारेण तस्यैव भयं विदधतो महेशस्याऽप्रेक्षाकारिताप्रसक्ति, न हि प्रेक्षापूर्वकारिणो गोपालादयोऽपि प्रयोजनशून्य विधाय वस्तु ध्वंसयन्ति । तन्न करुणाप्रवृत्तस्य कर्म सव्यपेक्षस्यापि प्राणिदुःखोत्पादकत्वं युक्तम् । किच प्राणिकर्मसव्यपेो यद्यसौ प्राणिनां दुःखोत्पादक इति न कृपालुत्वव्याघातः तर्हि कर्मपरतन्त्रस्य प्राणिशरीरोत्पादकत्वे तस्याभ्युपगम्यमाने वरं तत्फलोपभोक्तृसत्त्वस्य तत्सव्यपेक्षस्य तदुत्पादकत्वमभ्युपगन्तव्यम् एवमदृष्टेश्वरपरिकल्पना परिहृता भवति । यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधात् फलप्रदो नाऽप्रभुः, तथा महेश्वरोऽपि कर्मापेक्षफलप्रदो नाऽप्रभुः' इत्यप्ययुक्तम् यतो यथा राज्ञ. सेवा पूर्वक प्रवृत्ति भी नहीं मानी जा सकेगी। इस प्रकार निर्दोष प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रदर्शन में हमारा अभिप्राय होने से ही, स्वतन्त्रसाधन पक्ष में जो आश्रयासिद्धि आदि हेतुदोषों का उद्भावन किया गया है वह असंगत ठहरता है । क्योंकि पक्षादि की आवश्यकता स्वतन्त्र साधन में होती है किन्तु प्रसंगविपर्यय दिखाने में नहीं होती। यहां तो केवल व्याप्ति प्रसिद्ध हो इतना ही उपयोगी है और वह तो दिखायी हुई है। [ क्रीड़ा के लिए ईश्वरप्रवृत्ति की बात अनुचित ] तथा यह जो कहा था देहादि के सृजन में ईश्वर की प्रवृत्ति क्रीडा के प्रयोजन से ही होती है। और क्रीडा भी संपूर्ण अभिलषितवाले ही करते हैं.... इत्यादि [ पृ. ४०५ ] वह भी असंगत ही है, क्योंकि न्यायवार्त्तिककार ने ही इस का यह कहते हुए खण्डन किया है "जिन को चैन नहीं पडता वे ही क्रीडा करते हैं, ईश्वर चंन-सुख का अर्थी नहीं क्योंकि उसको कोई भी दुःख ही नहीं है ।" तथा यह जो कहा है कि दुखी लोग कभी क्रीडा में संलग्न नहीं होते - यह तो प्रस्तावित अर्थ की उपेक्षा करके कहा है, क्योंकि ईश्वर को दुःख भले न हो किंतु जो क्रीडा करने वाले हैं वे भी रागादि आसक्ति के निमित्तभूत जो इष्टसाधनभूत विषय हैं (जैसे बच्चों के लिये खिलौना आदि ) उनके विना क्रीडा का सम्भव ही कहाँ है ? अतः ईश्वर को क्रीडार्थी मानने पर उसे इष्ट या अनिष्ट हो ऐसे विषयों को भी मानने की आपत्ति होगी । [ ईश्वर में करुणामूलक प्रवृत्ति असंगत ] यह भी जो कहा है- करुणा से देहादिसृजन में ईश्वर की प्रवृत्ति होती है । वह तो विना सोचे कह दिया है । जो करुणावन्त है वह यातनामय देह का सृजन करके प्राणिओं को दुःख उत्पन्न करे यह अघटित है । यदि कहें कि जीवों के दुःखोत्पादक कर्मों की अधीनता से ईश्वर दुःख को उत्पन्न करता है, क्योंकि वह तो केवल निमित्तकारण ही है तो यह कहने लायक नहीं, यदि वे कर्म ईश्वर IIT आधीन यानी ईश्वरकृत नहीं है और कार्यभूत हैं तब तो कार्यत्व हेतु उन कर्मों में ही अपने साध्य (सकर्तृ कत्व) का द्रोही बन जाने का अतिप्रसंग होगा । यदि इस के निवारणार्थ उन कर्मों को ईश्वरकृत माना जाय तब तो ईश्वर में प्रेक्षाकारित्व यानी बुद्धिमत्ता की हानि का प्रसंग होगा, क्योंकि वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy