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प्रथमखण्ड-का० १ ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्ष:
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यत्तूक्तम्-शरीरसम्बन्धस्य तावद् व्याप्त्यभावेन तत्र निराकृतिः शरीरान्तररहितस्याऽप्यात्मनः शरीरधारण-प्रेरणक्रियासु यथा व्यापारस्तथेश्वरस्यापि क्षित्यादिकार्ये' इति तदप्ययुक्तम् , अपरशरीररहितत्वेऽप्यात्मनः शरीरसम्बद्धस्यैव तद्धारणादिकर्तृत्वोपलब्धेरीश्वरस्यापि शरीरसम्बद्धस्यैव कार्यकर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रतिपादितत्वात् । यदि च शरीरसम्बन्धाभावेऽपि तस्य क्षित्यादिकार्यकर्तृत्वं तदा वक्तव्यम्-किं पुनस्तत्र तत्र ? 'ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायः तत्तत्रोक्तमेवेति चेत् ? न, समवायस्य निषिद्धत्वात् । न च कुम्भकारादौ शरीरसम्बन्धव्यतिरेकेणान्यत् कर्तृत्वमुपलब्धमितीश्वरेऽपि तदेव परिकल्पनीयम् , दृष्टानुसारित्वात कल्पनायाः । न च शरीरव्यतिरेकेण ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नानामपि सद्भावः क्वचिदुपलब्ध इति नेश्वरेऽपि तदभावेऽसावभ्युपगन्तव्यः । तथाहि-ज्ञानादीनामुत्पत्तावात्मा समवायिकारणम् , आत्म-मनःसंयोगोऽसमवायिकारणम् , शरीरादि निमित्तकारणम् , न च कारणत्रयाभावे परेण कार्योत्पत्तिरभ्युपगम्यते । न चाऽसमवायिकारणात्म-मनः-संयोगादिसद्भाव ईश्वरेऽभ्युपगत इति न ज्ञानादेरपि तत्र भावः ।
अथाऽसमवायिकारणादेरभावेऽपि तत्रज्ञानाद्यत्पत्तिस्तहि निमित्तकारणेश्वरव्यतिरेकेरणांकुरादेः किमिति नोत्पत्तियुक्ता ? अथ ज्ञानाद्यभावे तदनधिष्ठितानां कथमचेतनानां तदुपादानादीनां प्रवृत्तिः
[ पृ. ३९७ ]-निरस्त हो जाता है, क्योंकि पूर्वोक्त रोति से जब धर्मो भी असिद्ध है तो उसके विशेषों की सिद्धि की बात ही कहां ? इसीलिये यह जो आपने कहा था - इस प्रकार के पृथ्वी आदि का जो कर्ता होगा वह अवश्यमेव नित्यज्ञान का आश्रय, अशरीरी, सर्वज्ञ और एक ही होगा-इस रीति से विशेषों की सिद्धि होने पर विशेषविरुद्धानुमानों को अवकाश नहीं है [ ३६७-१३ ]-यह भी सारहीन सिद्ध होता है।
[ देहधारणादिक्रिया में देहयोग अविनाभावि है ] यह जो कहा था-ईश्वर में शरीर का योग व्याति न होने से ही व्याहत हो जाता है, व्याप्ति इसलिये नहीं है कि अन्य शरीर न होने पर इस शरीर की धारण-प्रेरणादि क्रियाओं में आत्मा की प्रवृत्ति दिखती है, तो ईश्वर भी पृथ्वोआदि के उत्पादन में विना शरीर प्रवृत्त होगा [ ३६६-२ ] - यह भी अयुक्त ही है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि अन्य देह न होने पर भी सदेह आत्मा ही शरीर के धारणादि का कर्ता बनता हआ उपलब्ध होता है अतः ईश्वर को सदेह मान कर दी कार्य का कर्ता माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि कहें कि शरीरसम्बध के विना भी ईश्वर में पृथ्वी आदि कार्य का कर्तृत्व है तो यहाँ प्रश्न है कि उसमें कर्तृत्व क्या है ? यदि कहें कि ज्ञानचिकीर्षा और प्रयत्न का समवाय ही ईश्वर का कर्तृत्व है- तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि समवाय का पहले खण्डन किया जा चुका है [ पृ. १२३ ] कुम्हार में शरीरसंबन्ध के विना कभी भी कर्तृत्व नहीं देखा गया, अत: ईश्वर में भी शरीरसम्बन्ध से ही कर्तृत्व मानना उचित है क्योंकि कल्पना दृष्ट पदार्थ के अनुसार ही की जा सकती है, उच्छृङ्खल रूप से नहीं। शरीर के विना कहीं भी ज्ञान-इच्छा और प्रयत्न का सद्भाव मानना उचित नहीं है। देखिये-ज्ञानादि की उत्पत्ति में आत्मा को समवायिकारण, आत्मा-मन के संयोग को असमवायिकारण और शरीर को निमित्तकारण आप भी मानते हैं। तीन कारणों के अभाव में 'आप भी कार्य की उत्पत्ति नहीं मानते हैं। फिर भी ईश्वर में आपने असमवायिकारणभूत आत्म-मन के संयोगादि का सद्भाव नहीं माना है तो ज्ञानादि भी वहाँ नहीं हो सकते यह स्पष्ट ही है।
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