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________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः ४९३ प्रकृतप्रत्यक्षविषयबाधकत्वम् । नैतद्-इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-प्रत्यक्षबाधितविषयत्वात् तदनुमानस्य तदाभासत्वम् , तस्य तदाभासत्वात् प्रत्यक्षस्य तद्बा (देबा) धितविषयत्वेनाऽतदाभासत्वात् तद्विषयबाधकत्वम् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथानुमानाऽबाधितविषयत्वनिबन्धनं न तत्प्रत्यक्षस्याऽतदाभासत्वम् । कि तहि ? स्वपरिच्छेद्याऽव्यभिचारनिबन्धनम् । नन्वेवमनुमानस्यापि स्वसाध्याऽव्यभिचारनिबन्धनं कि नाऽतदाभासत्वमप्यभ्युपगमविषयः ? अथाऽबाधितविषयत्वे सति तस्य तदेव स्वसाध्याऽध्यभिचारित्वं परिसमाप्यते । नन्वेवमबाधितविषयत्वस्य प्रतिपत्तुमशक्तेर्न क्वचिदपि स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वस्यानुमानेऽतदाभासत्वनिबन्धनस्य प्रसिद्धिः। न हि बाधाऽनुपलम्भाद् बाधाऽभावः, तस्य विद्यमानबाधकेष्वप्यनुत्पन्नबाधकप्रतिपत्तिषु भावात् । [बुद्धिमत्कारणानुमान व्यापकानुपलब्धि का अबाधक ] यदि पूछे कि 'आप व्यापकानुपलब्धि से हमारे बुद्धिमत्कारण के अनुमान को बाधित कहते हो तो बुद्धिमत्कारणानुमान से व्यापकानुपलब्धि को ही बाधित क्यों नहीं कहते हो ?'- इसके सामने तो यह प्रश्न भी समान है कि-'वज्र भी काष्ठ की तरह लोहलेख्य है क्योंकि पार्थिव है' इस अनुमान के द्वारा, वज्र में लोहअलेख्यत्वग्राहक प्रत्यक्ष का ही बाध क्यों नहीं माना जाता है ? यदि कहें कि यहाँ अनुमान का विषय प्रत्यक्षबाधित है अतः वह बाधित अनुमान प्रत्यक्ष का बाधक कैसे बन सकता है ? ! -तो प्रस्तुत में बुद्धिमत्कारणत्व के अनुमान का विषय भी व्यापकानुपलब्धि से बाधित है, अत: अनुमान व्यापकानूपलब्धि का बाधक कैसे होगा? । यदि इस से उलटा कहें कि व्यापकानपलब्धि का विषय हो बुद्धिमत्कारण के अनुमान से बाधित है अतः व्यापकानुपलब्धि कैसे अनुमान की बाधक होगी? तो वहाँ भी कह सकते है कि पार्थिवत्व के अनुमान से, लोहअलेख्यत्वसाधक प्रत्यक्ष का विषय ही बाधित है अतः वह प्रत्यक्ष अनुमान का बाधक नहीं बनेगा। [लोहलेख्यत्वानुमान से प्रत्यक्ष का बाध क्यों नहीं ? ] यदि कहें-लोहलेख्यत्व का अनुमान सच्चा नहीं किंतु तदाभासरूप है अत. उससे लोहलेख्यत्वसाधक प्रत्यक्ष का बाधित होना असम्भव है-तो यह ठीक नहीं क्योंकि इतरेतराश्रय दोष लगता है। देखिये, अनुमान क्यों तदाभासरूप है ? प्रत्यक्ष से बाधितविषयवाला होने से । अनुमान, प्रत्यक्ष से बाधितविषयवाला क्यों है ? अनुमान अनुमानाभासरूप होने से, प्रत्यक्ष का विषय अबाधित है अतः यह प्रत्यक्ष तदाभासरूप नहीं है, इसलिये उससे अनुमान का विषय बाधित है। स्पष्ट ही यहाँ अन्योन्याश्रय लग जाता है। यदि इस दोष से बचने के लिये ऐसा कहा जाय कि “प्रत्यक्ष में प्रत्यक्षाभासरूपता का निषेध, अनुमान से उसका विषय अबाधित होने के आधार से नहीं करते है । तो किस आधार से करते हैं इसका उत्तर यह है कि स्वग्राह्यविषय के अव्यभिचार के आधार से करते हैं, अर्थात प्रत्यक्ष अपने विषय का व्यभिचारी-विसंवादी नहीं हैं।"-तो यहाँ भी प्रश्न है कि स्वग्राह्यविषयाऽव्यभिचार के आधार पर अनुमान में भी अनुमानाभासरूपता का निषेध क्यों नहीं करते हैं ? इसके उत्तर में यदि कहें कि-"अपना विषय अबाधित होने पर हो अनुमान में उक्त स्वसाध्याऽव्यभिचारिता परिसमाप्त यानी पर्यवसित होती है, फलित होती है, अन्यथा नहीं।"-तब तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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