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________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद प्रामाण्यमपीति गुणवच्चक्षुरादिभावाभावानुविधायित्वादित्यसिद्धो हेतुः । अत एवोत्पत्तौ सामग्यन्तरानपेक्षत्वं नाऽसिद्धम् । अनपेक्षत्वविरुद्धस्य सापेक्षत्वस्य विपक्षे सद्भावात ततो व्यावर्तमानो हेतुः स्वसाध्येन व्याप्यते इति विरुद्धानकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः स्वसाध्यसिद्धिः । [ परतः पक्ष में ज्ञान और प्रामाण्य में भेदापत्ति ] अपरं च, यह भी ज्ञातव्य है कि यदि ज्ञान अपने उत्पादक कारणों से उत्पन्न होने पर भी उसमें प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता किन्तु ज्ञानोत्पादक सामग्री से भिन्न सामग्रो द्वारा बाद में उत्पन्न हो तब ज्ञान और प्रामाण्य यानी प्रामाण्ययुक्त ज्ञान अर्थात् प्रमाण्यज्ञान में भेद मानना पडेगा। (i) जिन पदार्थों में विरुद्ध धर्म का संबंध होता है उनका भेद होता है। जैसे, शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श परस्पर विरुद्ध धर्म हैं इसलिये इन विरुद्ध धर्म से अध्यासित शीतजल और उष्ण तेज का भेद होता है । अथवा ( ii ) जिनके उत्पादक कारणों में भेद होता है उनके कार्य में भी भेद हो जाता है। जैसे, घट का कारण मिट्टी है और वस्त्र के कारण तन्तु हैं, इसलिये घट और वस्त्र में भेद है। प्रस्तुत में आपने जब प्रामाण्यशून्य विज्ञान की पहले उत्पत्ति मानी तब इसका अर्थ यह हा कि केवल विज्ञान अर्थतथाभावप्रकाशनस्वरूप नहीं है और प्रामाण्य अर्थतथाभावप्रकाशनस्वरूप है। इस प्रकार दोनों में उक्त स्वरूप व स्वरूपाभाव नामक-दो विरुद्ध धर्मों का अध्यास हआ। इससे विज्ञान और प्रामाण्य में भेद प्रसक्त होगा। तात्पर्य, ज्ञान और प्रामाण्य में भेद होना चाहिये। यह विरुद्ध धर्माध्यास प्रयुक्त भेद की आपत्ति हुई। अब, कारणभेद से भेद आपत्ति इस प्रकार है-आपके मतानुसार ज्ञान के कारण चक्ष आदि इन्द्रिय हैं और प्रामाण्य के कारण गुण आदि हैं, इस प्रकार कारणों का भेद होने से भी ज्ञान और प्रामाण्य में भेद की आपत्ति आएगी। यदि आप भेद की आपत्ति होने पर भेद नहीं मानेगे तो इस विषय में जो प्रसिद्ध वचन है वह मिथ्या सिद्ध होगा। प्रसिद्ध वचन इस प्रकार है - ( 'अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा' इत्यादि ) "यही भेद है कि जो विरोधी धर्म का सम्बन्ध है और यही भेद का प्रयोजक है जो इनके कारणों का भेद है । यदि विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध या कारणभेद होने पर भी वस्तु में भेद न होता हो तो समस्त संसार एक हो जाना चाहिये-अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थात्मक न होना चाहिये ।" [स्वस्वरूपनियतत्व और अन्यभावानपेक्षत्व के बीच व्याप्ति सिद्धि ] फलित यह होता है कि गुणरहित जिस सामग्रीरूप कारण से ज्ञान उत्पन्न होता है उसी कारण से प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है इसलिये आपने प्रामाण्य की उत्पत्ति को परत: सिद्ध करने के लिये जो हेतु दिया था कि 'प्रामाण्य गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रियों के भावाभाव का अनुसरण करने वाला होता है'-वह हेतु अब असिद्ध हो जाता है क्योंकि विज्ञान से अतिरिक्त प्रामाण्य के प्रति विज्ञान कारण से अतिरिक्त कोई कारण ही नहीं है। इसीलिये हमने जो उत्पत्ति में प्रामाण्य को स्वतः सिद्ध करने के लिये अन्य सामग्री की अपेक्षा के अभाव को हेतुरूप में प्रस्तुत किया था वह हेतु अब असिद्ध नहीं रहता। जिनकी उत्पत्ति स्वतः नहीं होतो है उन परतः होती है उन विपक्षों में निरपेक्षता नहीं रहती किन्तु सापेक्षता रहती है। इस प्रकार विपक्ष में न रहने वाला हमारा अनपेक्षत्व हेतु स्वस्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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