________________
१४
सम्मतिप्रकरण-काण्ड १
कि च यदि स्वसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावपि न प्रामाण्यं समुत्पद्यते, किंतु तद्व्यतिरिक्तसामग्रीतः पश्चाद् भवति, तदा विरुद्धधर्माध्यासात् कारणभेदाच्च भेदः स्यात् । अन्यथा 'अयमेव भेदो भेदहेतु वा, यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च, स चेन्न भेदको विश्वमेकं स्यात्' [भामती] इति वचः परिप्लवेत। तस्माद्यत एव गुणविकल सामग्रीलक्षणात्कारणाद्विज्ञानमुत्पद्यते तत एव
जा सकता है कि ज्ञानसामग्रो से सहजरूप से यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है एव दोषादि कारण विशेष के सहकार से अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है।
इस विपरीत प्रक्रिया के समर्थन में लोक में दिखाई भी पड़ता है कि प्राय: लोग पारमार्थिक स्वरूप वाले कारण का अनुमान विपरीत याने अयथार्थ ज्ञान से नहीं करते हैं. किन्तु सम्यग् यानी यथार्थज्ञान से ही करते हैं । जब इस प्रकार सम्यग् ज्ञान से ही कारणानुमान अर्थात् स्वरूपस्थ कारणों का अनुमान लोकसिद्ध है, तब जिस स्वत:प्रामाण्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया का प्रतिपादन पहले किया गया है उसका इनकार नहीं कर सकते। यह तो पहले भी कहा जा चुका है कि यथार्थ भाव और अयथार्थभाव को छोड़ कर तीसरा कोई कार्य नहीं। अर्थात् ज्ञाननिष्ठ यथार्थत्व या अयथार्थत्व को छोड़ कर तीसरा कोई धर्म है ही नहीं जिसमें ज्ञानसामग्री सामान्य को प्रयोजक कहा जाय एवं साथ-साथ इस सामग्री में गुण या दोष अन्तनिविष्ट होने से उनको ज्ञान में क्रमशः यथार्थता या अथार्थता उत्पन्न होने में प्रयोजन कहा जा सके। दर असल निर्मल इन्द्रियादि ज्ञानसामान्य की सामग्री से यथार्थ ज्ञान हो उत्पन्न होता है इसलिये यथार्थता यानी प्रामाण्य स्वत: है और दोष का सामग्री में प्रवेश होने पर ज्ञान अयथार्थ उत्पन्न होता है। निष्कर्ष यह है कि कार्यलिंगक अनुमान पक्ष में यथार्थोपलब्धि द्वारा इन्द्रियगत गुणों का अनुमान नहीं हो सकता।
[ अर्थ तथा भाव प्रकाशनरूप प्रामाण्य से विरहित ज्ञानस्वरूप नहीं होता]
(अपि चार्थतथा०) इसके अतिरिक्त, पदार्थ के तात्त्विक स्वरूप के प्रकाशन अर्थात् प्रकाशकत्व को प्रामाण्य कहा जाता है। चक्ष आदि के कारणों की सामग्री से ज्ञान उत्पन्न होने पर भी यदि अर्थ तथा भाव प्रकाशन यानी तात्त्विक (यथार्थ) प्रकाशकत्व की अनुत्पत्ति मानते हैं तो यह बताईये कि विज्ञान का उससे अन्य क्या स्वरूप आप मानते हैं ? आपके मत में अर्थ के तथाभाव यानी पारमार्थिक स्वरूप के प्रकाशन को छोडकर विज्ञान का ऐसा कोई अन्य स्वरूप नहीं हो सकता जिसको ज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी तत्काल अनुत्पन्न और उत्तरकाल में उत्पन्न होता है ऐसा कहा जा सके । इसलिये इस प्रकार का पश्चाद् उत्पन्न होने वाला प्रामाण्य मानना अयुक्त है । पूर्वकाल में पदार्थ में जो विद्यमान न हो और उत्तरकाल में उस पदार्थ में दिखाई दे वहाँ पदार्थ का मूलस्वरूप उससे रहित माना जाता है। जैसे, भित्ति पहले चित्र से रहित होती है। उसमें बाद में चित्र की रचना की गयी तो भित्ति सचित्र दिखाई देती है। इसलिये भित्ति को मूलत: चित्र से रहित मानी जाती है और सचमुच ऐसी अचित्र भित्ति भी होती है। परन्तु वस्तु के तात्विक स्वरूप के प्रकाशन को छोड कर विज्ञान का स्वरूप कोई दिखाई नहीं देता और होता भी नहीं है । तब यह फलित होता है कि जब विज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ तथा भाव प्रकाशन युक्त हो उत्पन्न होता है और वही प्रमाणज्ञान निष्ठ प्रामाण्य है । तात्पर्य, ज्ञान उत्पन्न होने के बाद उस में कोई प्रामाण्य नाम का धर्म उत्पन्न होता है ऐसा नहीं दिखाई देता।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org