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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यत्तु 'प्रासादादिसंस्थानादेवलक्षण्येऽपि पृथिव्यादिसंस्थानादे:, कार्यत्वादि पृथिव्यादीनामिष्यते, कार्य च कर्तृ-करणकर्मपूर्वकं दृष्टम्' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतो नाम घटादेविशिष्ट कार्यस्य कर्तृ. पूर्वकत्वमपलब्धं नैतावताऽविशिष्टस्यापि भूरुहादिकार्यस्य कर्तपूर्वकत्वमभ्युपगन्तु युक्तम्, अन्यथा पथिवीलक्षणस्थ कार्यस्य रूप-रस गन्ध-स्पर्शग्रणयोगित्वमुपलब्धं भूतत्वे सति, वायोरपि तद्योगित्व. मभ्युपगमनीयं स्यात् , तत्वादेव । अथात्र प्रत्यक्षादिबाधः स भूरुहादिकार्येष्वपि समान इति प्राक् प्रतिपादितम् ।
__ यत्तूक्तम् – 'कर्तृ पूर्वकस्य कार्यत्वादेस्तद्वलक्षण्याद न ततः साध्यावगमः' इत्यादि, तत् सत्यमेव, तद्वैलक्षण्यस्य प्रसाधितत्वात । अत एव सिद्धम् 'यागधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमव सन्निवेशादि' इत्यादिनन्थप्रतिपादितस्य दूषणस्य कार्यत्वादौ सर्वस्मिन्नीश्वरसाधके हेतौ समानत्वाद् न कस्यचित तत्साधकता । 'यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसङ्गः, धूमादि यथाविधमग्न्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमन तथाविधमेतद् यदि पर्वतोपरि भवेत् स्यात् ततो वह्नयाद्यवगमः' इत्यादिकस्तु पूर्वपक्षग्रन्थः पूर्वमेव विहितोत्तरः । यथा
कहा है कि-'अव्युत्पन्न लोगों को धूमादि हेतुक प्रसिद्ध अनुमान में भी आवश्यक व्युत्पत्ति नहीं होती है'-यह तो ठीक ही है, हम भी ऐसा मानते ही हैं।
[ साधर्म्य मात्र से कर्त्ता का अनुमान दुःशक्य ] यह जो कहा है -- [ पृ. ३८४ पं. ९ ] प्रासादादि के संस्थान से पृथ्वी आदि का संस्थान विलक्षण होने पर भी उससे पृथ्वी आदि में कार्यत्व की सिद्धि होती है और कार्य तो हमेशा कर्ता, करण और कर्म पूर्वक ही देखा जाता है । यह भी संगत नहीं है। कारण, विशिष्ट प्रकार के घटादि कार्य कर्तृ पूर्वक दिखते हैं इतने मात्र से सामान्य कोटि के वृक्षादि कार्यों को कर्तृ पूर्वक मान लेना युक्तियुक्त नहीं है, वरना भूतत्ववाले पृथ्वीरूप कार्य में रूप-रस-गन्ध-स्पर्शगुण का योग दिखता है तो वायु में भी भूतत्व के साधर्म्य से रूप-गन्धादि का अस्तित्व नैयायिक को मानना पडेगा । यदि कहें कि-उसमें तो प्रत्यक्षबाध है अतः नहीं मानेगे-तो यह बात वृक्षादिकार्यों के लिये भी समान है-यह पहले ही कह दिया है। [ पृ. ४३८ पं. ५ ]
यह जो कहा है-[ पृ. ३८४ पं. ११ ] पृथ्वी आदि के कार्यत्वादि, कर्तृ पूर्वक जो कार्यत्व होता है उससे विलक्षण है अत: उससे कर्ता का अनुमान नहीं हो सकता यह तो ठीक ही है । वैलक्षण्य कैसे है वह तो हमने कह दिया है कि एक जगह कृतबुद्धिजनक कार्यत्व है और अन्यत्र वैसा नहीं है । इसीलिये यह भी सिद्ध होता है-जैसा संनिवेशादि अधिष्ठाता के भावाभाव का अनृविधायी है वैसे ही उसे देखने पर कर्ता का अनुमान हो सकता है-इत्यादि पूर्वोक्त ग्रन्थ से कार्यत्वादि में जो दूषण दिखाये हैं वे ईश्वरसाधक प्रत्येक हेतु में समान रूप से संलग्न होने से कोई भी हेतु ईश्वर की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है। इसके विरुद्ध वहाँ ही पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था-[ पृ. ३८५ पं. १ ] कि ऐसा मानेंगे तब तो सभी अनुमानों के उच्छेद का प्रसंग होगा, उदाहरण देखिये-जैसा धूमादि अग्निआदि सामग्री के भावाभाव का अनुविधायि है वैसा ही यदि पर्वत के ऊपर हो तभी अग्नि का अनुमान होगा। [किन्तु पर्वत के ऊपर पाकशाला के जैसा धूम तो नहीं होता अत: अनुमान नहीं हो सकेगा।]
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