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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० संयोग ४७३ संस्थानादेरभावात् । भावे वा शरीरादिमतोऽस्मदादोन्द्रियग्राह्यस्यानित्यबुद्धयादिधर्मपेतस्य घटादौ संस्थानादिहेतुन्यापकत्वेन प्रतिपन्नस्य कर्तुः पृथिव्यादौ ततः प्रतिपत्तिः स्यात् , न हि हेतुव्यापकमपहायाऽव्यापकस्य विरुद्धधर्माकान्तस्याऽपरस्य साध्यधर्मस्य प्रतिपत्ति: साध्यमिणि यथोक्तलक्षणलक्षितहेतुबलसमुत्थेत्यनुमानविदां व्यवहारः। कारणमात्रप्रतिपत्तौ, तु ततः तत्र न विप्रतिपत्तिरिति सिद्धसाध्यता। ___ अथ हेतुलक्षणव्युत्पतिव्यतिरिक्तां व्युत्पत्तिमाश्रित्य 'व्युत्पन्नानाम्' इत्युच्यते तदा 'केनचित स्रष्ट्रा जगत सष्टम्' इति निर्मूलदुरागमाहितवासनानामस्त्येव पृथिव्या दिसंस्थानवत्त्वकार्यत्वादेतोमिधर्मताऽवगमादिः, न च तथा भूतमिधर्मताद्यवगमात साध्यसिद्धिः, वेदे मीमांसकस्याऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वादेः धमिधर्मताऽवगमादेर्यथाऽपौरुषेयत्वस्य । 'अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमावावपि नास्ति' इत्युक्तमेव, अस्माभिरप्यभ्युपगमाव । [ व्युत्पन्न को भी संस्थानादि से बुद्धिमत्कारणानुमान नहीं होता ] यह जो कहा है-व्युत्पन्न लोगों को पृथ्वी आदि और संस्थानवत्त्व में तथा पृथ्वी आदि और कार्यत्व में धर्मि-धर्मभाव का बोध होता ही है, जो लोग अव्युत्पन्न ( बुद्धिहीन ) हैं उन को तो प्रसिद्ध अनुमान स्थल में धूम-अग्नि-पर्वतादि में भी व्याप्ति आदि का ग्रह नहीं होता [ पृ. ३८४ पं. ७ ]-यह बात भी अरुचिकर है ? कारण, अनुमानप्रयोजक हेतु, पक्षधर्मता, व्याप्ति आदि स्वरूप व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर आप से व्युत्पन्न लोगों की बात की जाय तो यह कहना होगा कि घट आदिगत संस्थान और कार्यत्व से विलक्षण, पृथ्वी आदिगत संस्थान-कार्यत्व कर्तारूप साध्य का साधक है ऐसी व्युत्पत्ति किसी भी व्युत्पन्न को नहीं होती, क्योंकि कर्तारूप साध्य से व्याप्त जो संस्थानादि है वह पथ्वी आदि में नहीं है। यदि पृथ्वी आदि में घटादि जैसा ही संस्थानादि होगा तो, घटादि में संस्थानादिहेतु का व्यापक जैसा कर्ता उपलब्ध है-देहधारी, अपने लोगों को इन्द्रिय से ग्राह्य, अनित्यबद्धि इत्यादिधर्म समूह वाला- ऐसा ही कर्ता पृथ्वी आदि में मानना होगा। कारण, अनुमानवेत्ताओं में ऐसा व्यवहार नहीं है कि -हेतु के जो लक्षण कहे गये हैं ऐसे लक्षणों से अलंकृत हेतु के बल से साध्यधर्मी (पक्ष) में, हेतु के व्यापक साध्यधर्म की उपलब्धि न हो कर अव्यापक और विरुद्ध धर्मों से आक्रान्त किसी अन्य ही साध्य की उपलब्धि हो । यदि साधारण कार्यत्वहेतु के बल से पथ्वी आदि में मात्र सकारणकत्व ही सिद्ध करना हो तो वहाँ कोई विवाद नहीं अपितु सिद्धसाध्यता ही है। [ केवल धर्मिधर्म भाव से साध्यसिद्धि अशक्य ] अब यदि हेतु के लक्षणों की व्युत्पति से भिन्न किसी प्रकार की व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रख कर व्यूत्पन्न लोगों को धमिधर्मभाव के बोध होने का कहते हो तब निवेदन है कि जिन लोगों को निर्मल अविश्वसनीय आगम से 'किसी निर्माता ने जगत का निर्माण किया है। ऐसी वासना हो है उन लोगों को पथ्वी आदि और संस्थान तथा पृथ्वी आदि और कार्यत्वादि में मि-धर्मभाव का अवबोध होने का हम भी मानते हैं-किन्तु ऐसे निर्मूल धर्मिधर्मभावबोध से अभ्रान्त साध्य सिद्धि हो नहीं जाती, जैसे कि मीमांसकों को वेद और तद्विषयक कर्ता के अस्मरण में धर्मि-धर्मभाव का बोध है किन्तु उससे नैयायिकों के मतानुसार अपौरुषेयत्व की वेद में सिद्धि नहीं हो जाती। यह जो अन्त में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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