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________________ ४४८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ न्य-समवाया-त्परि (? यवि) शेषवत्' इति वैधर्म्यनिदर्शनमयुक्तम् । यदि मतम्-द्रव्यादौ तानि समवेतानि ततस्तस्य तानि न सामान्यादेविपर्ययादिति । तन्न सम्यक् , 'तत्र समवेतानि' इति समवायेन सम्बद्धानीति यद्यर्थः, स न युक्तः, समवायस्य निषिद्धत्त्वानिषेत्स्यमानत्वाच्च । भवतु वा समवायः, तथापि यत्र द्रव्ये गुणे कणि च द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं नाऽवान्तरसामान्यं तत्रैव पृथिवीत्वादिनि रूपत्वादीनि गमनस्वादीनि च तथाविधानि सामान्यानि, समवायोऽपि तत्रैव सामान्यवत्तस्य सर्वगतत्वाच्च द्रव्यादिवदन्योन्यसत्तानीति न द्रव्यादेः स्वतः सत्त्वबाधनमित्याशंका न निवर्तेत-कि द्रव्यादिसम्बन्धात् सत्ता सती, किं वा तया द्रव्यादिकं सत् ? इति । तन्न सत्तातः तन्वादेः सत्त्वम् , तस्था एवाऽसिद्धत्वात् । सत्ताप्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्यात सत्तायाः, प्रत्यक्षबाधितविषयत्वेनैवमुपन्यस्यमानस्य प्रसंगसाधनस्यानवकाशः । न च द्रव्यप्रतिभासवेलायां प्रत्यक्षबुद्धौ परिष्फुटरूपेण व्यक्तिविवेकेन सत्ता न प्रतिभातीति शक्यं वक्तुम् , अनुगताकारस्य व्यावृत्ताकारस्य च प्रत्यक्षानुभवस्य संवेदनात् । न चानुगत [एकान्तभेद पक्ष में वैपरीत्य की उपपत्ति ] यह भी सोचने लायक है कि-जब द्रव्यादि से अवान्तरसामान्य को एकान्त भिन्न मानते हो तब 'अवान्तरसामान्य का द्रव्यादि' ऐसा न होकर 'द्रव्यादि का अवान्तरसामान्य' ऐसा कैसे होगा? तात्पर्य यह है कि द्रव्यादि को अवान्तरसामान्यवाले न मान कर अवान्तरसामान्य को ही द्रव्यादिवाला मान सकते हैं । तब 'अवान्तरसामान्य वाला होने से' यह पूर्वोक्त हेतु कैसे सिद्ध हो सकेगा? यदि एकान्तभेद होने पर भी 'द्रव्यादि को ही अवान्तरसामान्यवाला' मानना चाहते हैं तो यह नहीं हो सकता क्योंकि परस्पर दोनों में मानना पड़ेगा, अर्थात् एकान्त भिन्न अवान्तरसामान्य जैसे द्रव्यादि में मानते हैं वैसे नियामकाभाव के कारण सामान्य-विशेष-समवाय में भी मानना पडेगा, अतः आपने जो व्यतिरेकि हेतु प्रयोग करके सामान्यविशेष और समवाय को वैधर्म्य दृष्टान्त बनाया है वह भी अयुक्त हो ठहरेगा। यदि ऐसा मानेंगे कि-अवान्तर सामान्य द्रव्यादि में ही समवेत हैं अत: द्रव्यादि के ही अवान्तर सामान्य हो सक विपरीत रूप से सामान्य-विशेष-समवाय के नहीं माने जा सकते ।-तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, 'उनमें समवेत हैं' इस का यदि ऐसा मतलब है कि 'द्रव्यादि में समवाय से सम्बद्ध है'-तो यह अयुक्त है क्योंकि समवाय का पहले प्रतिकार कर आये हैं और अग्रिम ग्रन्थ में किया भो जायेगा । अथवा मान लिजीये कि समवाय है, फिर भी सभी की सभी मे अन्योन्य सत्ता हो जाने की आपत्ति इस प्रकार आती है कि जिन द्रव्य -गुण-कर्म में द्रव्यत्व गुणत्व कर्मत्व अवान्तरसामान्य रहता है उन्हीं में पृथ्वित्वादि - रूपत्वादि-गमनत्वादि अवान्तर सामान्य भी रहता है और उन्हीं में समवाय भी रहता है, तथा समवाय सामान्य की भाँति सर्वगत यानी व्यापक है अतः कौन सा अवान्तर सामान्य किस में रहे और किस में न रह यहाँ कोई नियामक न होने से जैसे द्रव्यादि में द्रव्यत्वादि की सत्ता मानी जाती है वैसे ही सभी को सभी में समवाय से सत्ता मानी जा सकेगी। इस आपत्ति के कारण व्यतिरेकि हेतु प्रयोग से द्रव्यादि के स्वत: सत्त्व को कोई बाध नहीं पहुँच सकेगा। फलतः यह आशंका तदवस्थ रहेगी कि 'द्रव्यादिसम्बन्ध से सत्ता को सत् माने या सत्ता के सम्बन्ध से द्रव्यादि को सत् माने ?' निष्कर्ष, सत्ता के योग से देहादि का सत्व मानना अयुक्त है क्योंकि सत्ता का ही उपरोक्त रीति से कुछ ठीकाना नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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