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प्रथमखण्ड - का० १- सत्तापदार्थसमीक्षा
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अपि च यो हि तत्र सत्तासम्बन्धं नेच्छति स कथमवान्तरसामान्यसम्बन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नाडवान्तरसामान्यमिति । अथैतत् द्रव्यादयो न स्वतः सन्तः, अवान्तरसामान्यवत्त्वात् यत् पुनः स्वतः सत् न तदवान्तरसामान्यववद् यथा सामान्य- विशेष-समवाया इति व्यतिरेकी हेतुः । नैतद्-यदि हि द्रव्यादयो धर्मिणः, कुतश्चित् प्रतीति-ऋगोचरचारिणेत्सन्तो भवन्ति [ स कथमवान्तरसामान्यसम्बन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं, स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नाऽवान्तरसामान्यमिति । अथैतत् - द्रव्यादयो न स्वतः सन्तोऽवान्तरसामान्य ] वद्यथा सामान्यप्रतीतिः सत्त्वं साधयन्ती स्वत इति प्रतिज्ञां तदसत्त्वविषयाबाधने चेद मंत्रोत्तरम् -'न स्वतः सन्तस्ते प्रतीतिविषयाः किंतु सत्तासम्बन्धाद्' - इति, यतो 'न स्वयमसन्तस्तत्सम्बन्धात् तद्विषया भवन्ति' इत्युक्तम् ।
किं च द्रव्यादेरेकान्तेन यस्य भिन्नान्यवान्तरसामान्यानि कथं तस्य तानि स्युः, यतोऽवान्तरसामान्यवत्त्वादिति हेतुः सिद्धः स्यात् ? अथ तथापि तस्या (स्ये) ति, न, परस्परमपि स्युरिति 'सामा
पूर्वपक्ष:- द्रव्यादि को अपने आप ही सत् माना जायेगा तो द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य को मानने की आवश्यकता ही मिट जायेगी. क्योंकि सत्तायोग के विना जैसे वह स्वतः सत् माना जायेगा । ऐसे द्रव्यत्वादियोग के विना स्वतः द्रव्यादिरूप भी माना जा सकेगा । यही दोष है ।
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उत्तरपक्षी :- यदि द्रव्यादि को स्वरूपतः सद्रूप न मान कर असद्रूप मानते हैं तब तो गर्दभसींग आदि की भांति द्रव्यादि का नितान्त अभाव ही प्रसक्त होता है यह उससे भी बड़ा भारी दोष है । [ द्रव्यादि स्वतः सत् नहीं है - इस अनुमान का भंग ]
यह भी आप सोचिये कि जो अतिरिक्त सत्ता के
सम्बन्ध को ही नहीं मानते वे अवान्तरसामान्य के सम्बन्ध को भी क्यों मानेंगे ? 'द्रव्यादि स्वत: असत् हैं और अवान्तरसामान्य स्वतः असत् नहीं है' ऐसा भेद करने में कोई प्रमाण नहीं है, जिससे अवान्तरसामान्य को मानने के लिये बाध्य
होना पड़े।
पूर्वपक्ष:- द्रव्यादि स्वतः सत् नहीं क्योंकि द्रव्यत्वादि अवान्तरसामान्यवाले हैं । जो स्वतः सत् होता है वह अवान्तरसामान्यवाला नहीं होता जैसे सामान्य, विशेष और समवाय । यह व्यतिरेकी हेतु का प्रयोग है । इस अनुमान से द्रव्यादि के स्वतः सत्त्व का निषेध करेंगे ।
उत्तरपक्षी:- यह ठीक नहीं है, जब द्रव्यादि धर्मि पदार्थ किसी भी प्रकार से 'सत्' प्रतीति के विषय होते हैं तो वे अपने स्वतः सत्त्व को सिद्ध करते हुए 'वे स्वतः सत् नहीं है' इस प्रकार की उनके असत्व का प्रतिपादन करने वाली आपकी प्रतिज्ञा को बाघ क्यों नहीं करेंगे ?
पूर्वपक्ष:- द्रव्यादि स्वतः सत् होकर प्रतीतिविषय नहीं बनते किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से 'सत्' प्रतीति के विषय बनते हैं । अतः बाध नहीं होगा ।
उत्तरपक्षी - यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वे स्वयं असत होंगे तो सत्ता के सम्बन्ध से भी 'सत्' ऐसी प्रतीति के विषय नहीं बन सकते - यह पहले दिखा दिया है ।
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'पुष्पिकान्तर्गतः पाठोऽशुद्ध इव, तत्रापि [ ] कोष्ठान्तर्गतस्तु पुनरावृत्तः, अतः सम्यग्विचार्याऽस्य स्थाने"प्रतीतिगोचरीभवन्ति, कथं स्वतः सत्त्व साधयन्तः 'न स्वतः सन्तस्ते' इति प्रतिज्ञां तदसत्त्वविषयां न बाधन्ते ? न चेद" - इति पाठ: परामृष्ट: । तदनुसारेण च व्याख्याऽवलोक्या ।
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