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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ पट:' इति प्रतिपत्तिः स्यात् । नैतद् एवं, दण्डेऽपि 'पुरुषः' इति प्रतिपत्तिः स्यात् । उपचाराच्चेयं प्रतिपत्तिरुपजायमाना स्खलद्रपा स्याद, वाहीके गोबद्धिवत । न च समवेतमिदं वस्तु अत्र' इति प्रतिपत्तौ विशेषणभूतः समवायः प्रतिभाति इति वक्तुयुक्तम् , बहिष्प्रतिभासमानरूपादिव्यतिरेकेण अन्तश्चाभिजल्पमन्तरेणापरस्य वर्णाकृत्यक्षराकारशन्यस्य ग्राह्याकारतां बिभ्राणस्य बहिः समवायस्वरूपस्याप्रति भासनात् । वर्णाद्याकाररहितं च परैः समवायस्वरूपमभ्युपगम्यते । न च तत्कल्पनाबुद्धावपि प्रतिभाति । न चान्यादृशः प्रतिभासोऽन्यादृक्षस्यार्थस्य व्यवस्थापकः, अतिप्रसंगात् । तन्न समवायोऽध्यक्षप्रमाणगोचरः। यस्त्वाह-नित्यानुमेयत्वात समवायस्यानुमानगोचरता, तेनायमदोषः इति । तच्चानुमानम्'इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिस्तन्तु-पटव्यतिरिक्तसम्बन्धपूर्विका, 'इह' इति बुद्धित्वात , इह कंसपात्र्यां जलबुद्धि वन-इत्येतत् ; 'सोऽप्ययुक्तवादी, 'समवायस्यान्यस्य वा पदार्थस्य नित्यैकरूपस्य कारणत्वाsसम्भवात क्वचिदपि इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च 'तन्तुषु पट:-शृङ्ग गौः-शाखायां वृक्षः' इति लौकिकी प्रतीतिरस्ति, 'पटे तन्तव:-गवि शृङ्गम-वृक्ष शाखा' इत्याकारेण प्रतीत्युत्पत्तेः संवेदनात , तस्याश्च समवायनिबन्धनत्वे तत्वादीनां पटाधारब्धत्वप्रसंगः । उत्तरपक्षी:-यदि ऐसा कहेंगे तब तो बालक अबला आदि जिन लोगों को तथाविध आगम से कोई वासना उत्पन्न नहीं हुयी है उन लोगों को तो समवाय की प्रत्यक्षता के बारे में कोई विभ्रम नहीं हो सकता, अतः श्वेत वस्त्र को देख कर उन लोगों को 'शुक्ल वस्त्र' ऐसा प्रत्यक्ष न हो कर यह वस्त्र, ये शुक्लादि गुण और यह उनका मध्यवत्ता अलग समवाय ऐसा ही प्रत्यक्ष होना चाहिये । किन्तु ऐसा होता नहीं है, अत: पूर्वपक्ष का कथन व्यर्थ है। पूर्वपक्षीः-समवाय बहुत मूक्ष्म है, देखने पर भी वह स्फुट उपलक्षित नहीं होता, दूसरी ओर शुक्ल रूपादि गुण वस्त्र में रहने वाले हैं अतः 'शुक्ल वस्त्र' ऐसी गुण-गुणी के अभेद भाव से प्रतीति होती है। उत्तरपक्षी:-यह ऐसा नहीं है, यदि उपचार से ऐसी प्रतीति होने का कहेंगे तो दंडवाले पुरुष को देख कर उपचार से दंड में भी यह पुरुष है' ऐसी बुद्धि हो जायेगी। और यदि 'शुक्ल वस्त्र' इस प्रतीति को उपचार से होने का मानेंगे तो वह स्खलद्रूप, यानी बैलवाहक में बैल की बुद्धि की तरह अवास्तव हो जायेगी जो किसी को भी मान्य नहीं है। पूर्वपक्षी:-'यह वस्तु इस में समवेत है' इस प्रकार की प्रतीति में समवाय ही वस्त्रादि के विशेषणरूप में प्रतीत होता है। उत्तरपक्षी -ऐसा भी कहना अयूक्त है क्योंकि उक्त प्रतीति में, बाह्यजगत् के तो वे वल रूपादि ही भासते हैं और समवाय को तो आप अपनी वासना से अन्तर्जल्प के द्वारा उस में जोड कर वैसा बोलते हैं, वास्तव में ग्राह्याकार को धारण करने वाले, वर्ण-आकृति और अक्षराकार से शून्य ऐसे समवाय का स्वरूप बाह्य जगत् में किसी को भी नहीं भासता है । समवाय को तो आप वर्णादिआकार से शून्य स्वरूपवाला मानते हो, और वैसा समवाय कभी कल्पना में भी स्फुरित नहीं होता। एक प्रकार का प्रतिभास कभी अत्यप्रकार की वस्तु का व्यवस्थापक नहीं बन सकता, अन्यथा रूपआकार का प्रतिभास रस का स्थापक हो जायेगा। निष्कर्ष:- समवाय प्रत्यक्षप्रमाण का विषय नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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