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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० समवाय० ४३३ अथ प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धत्वात् समवायस्य एवं विकल्पनमयुक्तम् । तसत्-यदि हि तत्सिद्धत्वं तस्य स्यात् तदाऽयुक्तमेतत् , न च प्रत्यक्षप्रमाणे तत्स्वरूपावभासः- न हि तदात्मा, ज्ञानम् तत्समवायश्चेति त्रितयमिन्द्रियजाध्यक्षगोचरः, नापि स्वसंवेदनाध्यक्षविषयः तस्य भवताऽनभ्युपगमात् । नाऽप्येकार्थसमवेतानन्तरमनोऽध्यक्षविषयः, तस्य प्रागेव निषिद्धत्वात् । न च बाह्यष्वपि घट-रूपादिष्वर्थेषु 'अयं घट , एते च तत्समवेता रूपादयः, अयं च तदन्तरालवर्ती भिन्नः समवायः' इति त्रितयमध्यक्षप्रतीतौ विभिन्नस्वरूपं प्रतिभाति । तत्प्रतिभाने वा द्रव्य-गुण-समवायानामध्यक्षसिद्धत्वाद् विभिन्नस्वरूपतया न गुण-गुणिभावे समवाये वा कस्यचिद् विवादः स्यात् । नाप्येकत्वविभ्रमो घट-रूपादीनाम् , ततश्च तन्निराकरणार्थ शास्त्रप्रणयनमपार्थकं स्यात् । ननु यथा प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नेऽप्यकनेकान्ते जैनेन, स्वलक्षणे वा बौद्धेन स्वदुरागमाहितवासनाबलालोकस्य तेन तदप्रतिपन्नताविभ्रमः तनिराकरणाथं च शास्त्रप्रणयनम तथाऽत्रापि स्यादिति । तहि तथाविधशास्त्ररहितानामबला-बालादीनां न समवायप्रत्यक्षताविभ्रम इति तेषां 'शुक्ल: पटः' इति प्रतीतिर्न स्थात . अपि तु 'अयं पटः, एते शुक्लादयो गुणाः, अयं च तदन्तरालवी अपर समवायः' इति प्रतीतिः स्यात । अथ समवायस्य सूक्ष्मत्वात् प्रत्यक्षत्वेऽप्यनुपलक्षणात् तत्रस्थत्वेन रूपातीनामुपचारात् 'शुक्ल: [समवाय की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से अशक्य ] पर्वपक्षीः समवाय तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है, अतः उसके ऊपर उपरोक्त विकल्प जाल फैलाना अयुक्त है। उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है, यदि वह प्रत्यक्ष से सिद्ध होता तब तो विकल्पजाल अवश्य अयुक्त होता, किन्तु प्रत्यक्षप्रमाण में तो कभी भी उसके स्वरूप का भास नहीं होता। 'ईश्वरात्मा. ज्ञान और उनका समवाय' ऐसी त्रिपुटी इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का तो विषय नहीं होती। स्वयंप्रकाशी प्रत्यक्ष का विषय भी नहीं है, क्योंकि आप ज्ञान को स्वप्रकाश नहीं मानते । उसी ज्ञान के अधिकरण में समवेत अन्य मानसप्रत्यक्ष (अनुव्यवसाय ) का भी वह विषय नहीं होता क्योंकि ज्ञान की ज्ञानान्तरवेद्यता को पहले [१० ३४४ पं० १] परास्त कर दिया है । बाह्यजगत की बात करें तो घट और रूपादि पदार्थों में "यह घट है, ये उसमें समवेत रूपादि हैं और उन दोनों का मध्यवर्ती यह अलग समवाय है" इस प्रकार विभिन्न स्वरूप वाली निपुटी प्रत्यक्ष ज्ञान में भासित नहीं होती है। यदि ऐसी प्रतीति वास्तव में होती हो तब तो द्रव्य, गुण और समवाय तीनों ही प्रत्यक्ष से सिद्ध हो जाने के कारण विभन्नस्वरूप से गुणगुणीभाव और समवाय के बारे में किसी को विवाद ही नहीं रहता, उपरांत गणगणी अर्थात रूपादि और घट में एकत्व का विभ्रम होना भी सम्भव नहीं है, तो फिर गुण-गणी के एकत्व को तथा समवाय में विवाद को परास्त करने के लिये शास्त्रों की रचना निरर्थक हा जायेगी। [ आगमवासनाशून्य बालादि को भी समवाय प्रतीत नहीं होता ] पूर्वपक्षीः जैनों मानते हैं कि अनेकान्त प्रत्यक्षसिद्ध है, बौद्ध भी मानते हैं कि स्वलक्षण वस्त प्रत्यक्षसिद्ध है, फिर भी अपने अपने मिथ्या आगम से उत्पन्न वासना के प्रभाव से जिन लोगों को अनेकान्त और स्वलक्षण प्रत्यक्षसिद्ध न होने का विभ्रम हुआ करता है उनके विभ्रम को तोडने के लिये जैन और बौद्धों की ओर से शास्त्रों की रचना की जाती है-आप उनको निरर्थक नहीं मानते है-तो वैसे ही हम भी समवाय की सिद्धि के लिये शास्त्रनिर्माण करते हैं। इस में क्या दोष हआ?। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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