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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
महत्यनेकद्रव्यवत्त्वाद् रूपाच्चोपलब्धिः [ वै० द०४-१-६]
रूपसंस्काराभावाद वायावनुपलब्धिः [ वै० द०४-१-७] रूपसंस्कारो रूपसमवायः द्वयणुकादीनां स्वनुपलब्धिरमहत्त्वादिति । अन्ये तु-वायोरपि स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षग्राह्यत्वम् इच्छन्ति, द्वीन्द्रियग्राह्यत्वापेक्षया तु रूपसमवायाभावादनुपलब्धिरित्युक्तम् ।
तत्र सामान्येन द्वीन्द्रियग्राह्याऽग्राह्यस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वसाधने सिद्ध साध्यतादोषः, घटादिभयसिद्धेविवादाभावात् । अभ्युपेतबाधा च, अण्वाकाशादीनां तथाऽनभ्युपगमात , तेषां च नित्यत्वात् प्रत्यक्षादिबाधा। अतस्तदर्थ विमत्यधिकरणभावापन्नग्रहणम् । विविधा मतिविमतिः विप्रतिपत्तिरिति यावत , तस्या अधिकरणभावापन्न, विवादास्पदीभूतमित्यर्थः । एवं च सति शरीरेन्द्रियभुवनादय एवात्र पक्षीकृता इति नाण्वादिप्रसंगः । कारणमात्रपूर्वकत्वेऽपि साध्ये सिद्धसाध्यता मा भूदिति बुद्धिमत्कारणग्रहणम् । सांख्यं प्रति मतुबर्थानुपपत्तेन सिद्धसाध्यता, अव्यतिरिक्ता हि बुद्धिः प्रधानात सांख्यरुच्यते । न च तेनैव तदेव तद्वद् भवति । स्वारम्भकाणामवयवानां सन्निवेशः प्रचयात्मकः संयोगः, तेन विशिष्ट व्यवच्छिन्नं तद्धावस्तस्मात् । अवयवसंनिवेशविशिष्टत्वं गोत्वादिभिर्व्यभिचारीत्यतः स्वारम्भकग्रहणम्। गोस्वादीनि तु द्रव्यारम्भकावयवसन्निवेशेन विशिष्यन्ते न तु स्वारम्भकावयवसन्निवेशेनेति । तेन योऽसौ बुद्धिमान् स ईश्वरः-इत्येकम् ।
[ अविद्धकर्ण का प्रथम अनुमान ] अविद्धकर्णसंज्ञक विद्वान् ईश्वर की सिद्धि में ये दो प्रमाण दिखा रहा है
(१) विमत्यधिकरणभावापन्न (विवादास्पदीभूत) इन्द्रियद्वय से ग्राह्य और अग्राह्य वस्तु ( -यह पक्ष निर्देश हुआ ) बुद्धिमत्कारणपूर्वक होती है (यह हुआ साध्य निर्देश, अब हेतु दिखाते हैं-) क्योंकि स्व के आरम्भक अवययों के सन्निवेश से विशिष्ट है। जैसे कि घटादि, ( यह साधर्म्य दृष्टान्त हुआ ) और वैधर्म्य से परमाणु आदि ।
यहाँ दर्शनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय दो इन्द्रियों से ग्राह्य, परमाणु और द्वयणक से भिन्न पृथ्वीजल और तेज द्रव्य ये तीन ही हैं क्योंकि उनमें ही महत्त्व, अनेक द्रव्य ( अवयव )वत्ता और रूपादि ये तीनों उपलब्धि कारण विद्यमान हैं। परमाणु में केवल रूप ही है शेषद्वय नहीं है और द्वयणुक में महत्व नहीं है शेष दोनों हैं, अत: उपलब्धि के उक्त तीन कारणों के न होने से उनकी उपलब्धि नहीं होती है। शेष रह गया वायु द्रव्य, उसको 'अग्राह्य' पद से पक्ष बनाया है, क्योंकि महत्त्वादि तीन जो उपलब्धि कारण हैं उन में से वायु में रूपसमवाय उपलब्धिकारण न होने से द्वीन्द्रिय ग्राह्यपद से उसका संग्रह शक्य नहीं है । वैशेषिक दर्शन के सूत्र पाठ में कहा भी है-"महत्त्व वाले में अनेक द्रव्य. वत्ता और रूप के कारण उपलब्धि होती है। और रूपसंस्कार न होने से वायु में उपलब्धि नहीं होती" । यहाँ रूप संस्कार का अर्थ रूपसमवाय समझना । द्वयणुकादि में महत्त्व न होने से उपलब्धि नहीं होती।
अन्य विद्वान तो वायु को भी स्पर्शनेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष से ग्राह्य मानते हैं । तब सूत्र पाठ में जो उसकी अनुपलब्धि को कहा है वह इसलिये कि रूपसमवाय न होने से वह इन्द्रियद्वय से ग्राह्य नहीं बन सकता ( केवल एक ही स्पर्शनेन्द्रिय से ही ग्राह्य बनता है )।
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