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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः
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प्रसंग-विपर्यययोरप्यनुत्पत्तिः । प्रसंगस्य व्याप्त्यभावात् , तन्मूलत्वात् तद्विपर्ययस्य, तथेष्टविधातकृतश्च । यच्च नित्यस्वादकर्तृ करवमुच्यते शाक्यैस्तदपि क्षणभंगभंगे प्रतिक्षिप्तम् । यदपि व्यापारं विना न कर्तृत्वं तदपि ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नलक्षणस्य व्यापारस्योक्तत्वानिराकृतम् ।
____ वार्तिककारेणापरं प्रमाणद्वयमुपन्यस्तं तत्सिद्धये-(१) महाभूतादिव्यक्तं चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुख-दुःखनिमित्तम् , रूपादिमत्त्वात् , तुर्यादिवत् । तथा (२) पृथिव्यादीनि महाभूतानि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्तन्ते, अनित्यत्वात् , वास्यादिवत् । । न्या० वा० ४-१-२१]
अविद्धकर्णस्तु तत्सिद्धये इदं प्रमाणद्वयमाह -
(१) द्वीन्द्रियग्राह्याऽग्राह्य विमत्यधिकरणभावापन्नं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम् स्वारम्भकावयवसनिवेशविशिष्टत्वाव , घटादिवत , वैधपेण परमाणवः इति । तत्र द्वाभ्यां दर्शनस्पर्शनेन्द्रियाभ्यां ग्राह्य महदनेकद्रव्यवत्त्वरूपाशुपलब्धिकारणोपेतं पृथिव्युदकज्वलनसंजकं त्रिविधं द्रव्यं द्वीन्द्रियग्राह्यम् । अग्राह्य वाय्वादि, यस्माद् महत्त्वमनेकद्रव्यवत्त्वं रूपसमवायादिश्वोपलब्धिकारणमिष्यते, तच्च वाय्वादौ नास्ति । यथोक्तम् -
[इश्वर में प्रसंग-विपर्यय भी बाधक नहीं ] ईश्वरकर्तृत्वसाधक अनुमान के सामने शरीरादि को लेकर * प्रसंग-विपर्यय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं । प्रसंग-विपर्यय की सम्भावना इस तरह की जाय कि-जो कर्ता होता है वह शरीरी होता है, ईश्वर शरीरी नहीं है, अत एव वह कर्ता नहीं हो सकता ।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रसंग व्याप्ति-मूलक होता है, यहाँ कर्तृत्व में शरीर की व्याप्ति ही असिद्ध है, यह पहले ही कह दिया है। विपर्यय भी प्रसंगमूलक होने से यहाँ निरवकाश है। कार्यत्व हेतु की कर्तृत्व के साथ व्याप्ति दृढमूल होने से हेतु इष्टविधात कृत् भी नहीं है, क्योंकि कार्यत्व हेतु से कर्तृत्वमात्र ही साध्य इष्ट है । बौद्धों की ओर से जो कहा जाता है कि-ईश्वर नित्य होगा तो वह कर्ता नहीं होगा। क्योंकि नित्य पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व घटता नहीं है'-यह भी, पूर्वग्रन्थ में स्थायी आत्मसिद्धि के प्रकरण में क्षणभंगवाद का भंग किये जाने से ही परास्त हो जाता है। जो मीमांसकादि यह कहते हैं कि-व्यापार के विना कर्तत्व नहीं घट सकता और ईश्वर व्यापारहीन होने से कर्ता नहीं हो सकता-यह भी परास्त हो जाता है क्योंकि ईश्वर में ज्ञान-क्रिया-इच्छा और प्रयत्न स्वरूप व्यापार दिखा दिया है।
[वात्तिककार के दो अनुमान ] न्यायवात्तिककार उद्योतकर ने ईश्वर की सिद्धि में और भी दो प्रमाण दिये हैं
(१) महाभूतादि व्यक्त पदार्थ चेतनाधिष्टित होने पर ही जीवों के सुख-दुःख में निमित्त बन सकता है क्योंकि महाभूतादि पदार्थ रूपादिमान है जैसे वस्त्रोत्पादन में निमित्तभूत तुरी ( =जुलाहों का एक औजार) आदि । इस प्रकार अधिष्ठाता ईश्वर सिद्ध होता है।
(२) पृथ्वी आदि महाभूत, बुद्धिवाले कारण से अधिष्ठित हो कर ही अपनी धारणादि क्रिया में संलग्न होते हैं, चूंकि अनित्य है जैसे कुठारादि । यहाँ बुद्धिमान् अधिष्ठाता के रूप में ईश्वर सिद्ध होता है।
* प्रसंग-विपर्यय के परिचय के लिये देखिये १० ३०० ।
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