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प्रथमखण्ड-का० १- ईश्वरकर्तृत्व पूर्वपक्ष:
या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गे सा कैश्चित् क्रीडार्थमुक्ता सा चावाप्तप्रयोजनानामेव भवति न त्वन्येबाम् । अतो यदुक्तं वातिककृता "क्रोडा ही रतिमविन्दताम् न च रत्यर्थी भगवान्, दुःखाभावात् " [ न्या०वा० ४-१-२१], तत् प्रतिक्षिप्तम्, न हि दुःखिताः क्रीडासु प्रवर्तन्ते, तस्मात् क्रीडार्था प्रवृत्तिः । अन्ये मन्यन्ते - कारुण्याद् भगवतः प्रवृत्तिः । नन्वेवं केवलः सुखरूपः प्राणिसर्गोऽस्तु । नैवं, निरपेक्षस्य कर्तृत्वेऽयं दोषः, सापेक्षत्वे तु कथमेकरूपः सर्गः ? ! यस्य यथाविधः कर्माशयः पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो वा तस्य तथाविधफलोपभोगाय तत्साधनान् शरीरादींस्तथाविधांस्तत्सापेक्षः सृजति इति ।
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न चेश्वरत्वव्याघातः सापेक्षत्वेऽपि यथा सवितृप्रकाशस्य स्फटिकाद्यपेक्षस्य, यथा वा करणाfuष्ठायकस्य क्षेत्रज्ञस्य सापेक्षत्वेऽपि तेषु तस्येश्वरता (त) द्वदत्रापि नेश्वरताविधातः । - इति केचित् । ही अर्थ का प्रकाशक हो ? ! जब दीपक का वस्तुप्रकाशनस्वभाव है तब किसी कक्ष में उसको रखा तब तो अपरिमितार्थप्रकाशन में चार दीवार ही अन्तरायभूत हैं किंतु ईश्वर के ज्ञान में तो को अन्तराय ही नहीं है, अत: वह सर्वार्थ प्रकाशक ही सिद्ध होता है ।
शंका:- ईश्वर में रागादि आवरण का अभाव है यह कैसे जान लिया ?
उत्तर:- रागादि के सद्भाव का प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं है ।
शंकाः-कोई प्रमाण नहीं है तो भी वहाँ संशय को अवकाश है, अतः रागादि का अभाव नहीं हो सकता ।
उत्तर:- रागादि का कारण बुद्धिविपर्यास है, जब यह कारण ही ईश्वर में नहीं है तो यहाँ रागादिभाव कैसे होंगे । विपर्यास इसलिये नहीं है कि उसका निमित्त अधर्म (अदृष्ट ) है जो भगवान में नहीं है । यदि भगवान में अधर्ममूलक विपर्यास होता तो, जिसको हम बुद्धि से सोच भी नहीं सकते इतने बड़े बड़े ऐसे कार्य की उससे उत्पत्ति ही कैसे हो सकती ? ईश्वर को अधर्म वाला मान कर भी उससे बड़े बड़े अचिन्त्य कार्यों की उत्पत्ति मानने पर अनेक प्रकार की अदृष्ट कल्पनाएँ करनी होगी क्योंकि अधर्मवाले किसी भी जीव से नदी समुद्रादि बड़े कार्य की उत्पत्ति दृष्ट नहीं है । तदुपरांत, रागादि की उत्पत्ति इष्ट-अनिष्ट विषयों में ही होती है, भगवान तो कृतकृत्य होने से उनके लिये कोई विषय इष्ट-अनिष्ट ही नहीं रहा तो उनको रागादि कैसे हो सकते हैं ? ! रागादि के अभाव में सर्वज्ञता निर्बाध सिद्ध हो जायेगी ।
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[ ईश्वर की क्रीडाहेतुक प्रवृत्ति भी निर्दोष ! ]
कोई विद्वान कहते हैं कि शरीरादि सृष्टि के उत्पादनार्थ जो ईश्वर की प्रवृत्ति है वह क्रीडा के तु है | क्रीडा वे लोग ही कर सकते हैं जो कृतकृत्य हो गये हो, जिनके सब प्रयोजन सिद्ध हो गये हो । असिद्ध प्रयोजनवाले कभी क्रीडा में संलग्न नहीं हो सकते । अत एव न्यायवार्तिककार उद्योत - करने जो यह कहा है- "जिनको चैन न पड़ता हो वे ही क्रीडा में प्रवृत्त होते हैं, भगवान को रति का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि प्रभु को कोई दुःख ही नहीं है । ( जिसकी निवृत्ति हेतु क्रीडा करे ) ।"यह बात परास्त हो जाती है । दीन-दुखिये लोग कभी क्रीडा में संलग्न नहीं होते ( वे तो अपने दुःखनिवारण की चिन्ता में ही पड़े रहते हैं कृतकृत्य लोग ही क्रीडा कर सकते हैं) । अतः ईश्वर की प्रवृत्ति क्रीडानिमित्त है यह कहा जा सकता है ।
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