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सद्भावप्रतिपादनेषु किंचिदस्ति बाधकमिति स्वरूपे प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यमिति श्रागमादपि सिद्धप्रामा
ण्यात् तदवगमः ।
सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड - १
ईश्वरस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहणप्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः । यथा तेषां सावित्रं प्रकाशं विना नोपधानाकारग्रहणसामर्थ्यं तथेश्वरं विना क्षेत्रविदां न स्वविषयग्रहणसामर्थ्यमित्यस्ति भगवानीश्वर : सर्ववित् ।
इतश्वासी सर्ववित्- ज्ञानस्य सन्निहितसदर्थप्रकाशकत्वं नाम स्वभावः, तस्यान्यथाभावः कुतविद्दोषसद्भावात् एतत्तावद् रूपं चक्षुराद्याश्रयाणां ज्ञानानाम् । यत् पुनश्चक्षुरनाश्रितं न च रागादिमलावृतं तस्थ विषयप्रकाशनस्वभावस्य विषयेषु किमिति प्रकाशनसामर्थ्यविघातः यथा दीपादेरपवरकान्तर्गतस्य ? ननु रागादेरावरणस्य कथं तत्राभावोऽवगतः ? तत्प्रतिपादक प्रमाणाभावात् । 'प्रमाणस्याभावे संशयोऽस्तु रागादीनां न त्वभावः' । विपर्यासकारणा रागादयः, एषां कारणाभावे कथं तत्र भावः ? विपर्यासश्चाधर्मनिमित्तः, न च भगवत्यधर्मः तत्सद्भावे वा इत्थंविधस्यास्मदादिभिश्चिन्तयितुमशक्यस्य कार्यस्य कथं तस्मादुत्पादः अनेकादृष्ट कल्पना प्रसंगात् ? किंच रागादयः इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषूपजायमाना दृष्टाः । न च भगवतः कश्चिदिष्टानिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात् ।
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[ 'पत्थर तैरते हैं' इस प्रयोग के प्रामाण्य का निषेध ]
शंका:- स्वरूपार्थ में वाक्यों को प्रमाण मानने पर तो 'पत्थर तैरते हैं' इत्यादि वाक्यों को भी यथार्थ मानना पड़ेगा ।
उत्तरः- नहीं मानना पड़ेगा, क्योंकि इसके मुख्यार्थ में बाधक विद्यमान है । जहाँ मुख्यार्थ में बाधक प्रमाण की सत्ता हो वहाँ वह प्रयोग औपचारिक होने की कल्पना करना युक्त है और जहाँ बाधक प्रमाण न हो उस प्रयोग को यथार्थ ही मानना चाहिये ।
ईश्वरसद्भाव के प्रतिपादन करने वाले वेदादिवाक्यों के मुख्यार्थ में कोई बाधक प्रमाण नहीं है अतः उन वाक्यों का स्वरूप अर्थ में प्रामाण्य स्वीकारना होगा । इस रीति से सिद्ध प्रामाण्य वाले आगम से भी ईश्वर का बोध किया जा सकता है ।
अपने विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त क्षेत्रज्ञों में ईश्वर स्वतः अपनी सत्तामात्र से ही [ शरीर के आकार ग्रहण में प्रवृत्त स्फटिकादि में स्फटिकादि, उपाधि के आकारग्रहण विषयों के ग्रहण में समर्थ नहीं हो
विना भी ] अविष्ठित है । उदा० उपाधि ( जपाकुसुमादि) के सूर्यप्रकाश जैसे स्वतः अधिष्ठित होता है । सूर्यप्रकाश के विना में समर्थ नहीं हो सकते, ऐसे ही ईश्वर के विना क्षेत्रज्ञ भी अपने सकते । इस प्रकार भगवान ईश्वर सर्वज्ञ है यह सिद्ध होता है ।
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[ सर्वज्ञता की साधक युक्ति ]
ईश्वर सर्वज्ञ इस रीति से भी है-नेत्रादि साधन से होने वाले ज्ञान का स्वरूप ऐसा है कि वह निकटवर्ती सद्भूतअर्थ का प्रकाशक होता है, कदाचित् कोई दोष भी ज्ञानसामग्रीअन्तर्भूत हो जाय तब वह दूरवर्ती असद्भूत अर्थ का भी प्रकाश कर देता है । नेत्रादिनिरपेक्ष जो ज्ञान है उसका स्वभाव तो विषय प्रकाशन का है ही, उपरांत वह रागादिमल से अनावृत भी है तो अब यह सोचना होगा कि उसके विषयप्रकाशनसामर्थ्य में कौन विघात करेगा जिससे कि वह सन्निहित एवं परिमित
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