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________________ ४०२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ आगमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते-तथा च भगवान् व्यास:द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कटस्थोऽक्षर उच्यते ।। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। [ गीता-१५/१६-१७ ] इति । तथा श्रुतिश्च तत्प्रतिपादिका उपलभ्यते - [ शुक्लयजुर्वद १७-१६] विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो, विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैवाभूमि जनयन् देव एक आस्ते ॥ [ श्वेताश्व० ३-३ ] न च स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम् , प्रमाणजनकत्वस्य सद्भावात् । तथाहि-प्रमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिजनकत्वेन, तच्चेहास्त्येव । प्रवृत्ति-निवृत्ती तु पुरुषस्य सुख-दुःखसाधनत्वाध्यवसाये समर्थस्याथित्वाद् भवत इति । अथ विधावङ्गत्वादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थत्वादिति उत्तर:-वह भी प्रमाणसिद्ध है इसीलिये उसको मानने की जरूर है, और तो कोई नहीं है। शंकाः-यदि ऐसा मानेगे तो अनवस्था प्रसक्त होगी, जैसे इन्द्रियों का अधिष्ठाता हआ क्षेत्रज्ञ, उसका भी अधिष्ठाता हुआ ईश्वर, तो उस ईश्वर का भी कोई अधिष्ठायक प्रसक्त क्यों नहीं होगा? उत्तरः-यदि ईश्वर के भी अधिष्ठाता का साधक कोई प्रमाण है तो अन वस्था होने दो, सच बात यह है कि ईश्वर के अधिष्ठाता का साधक कोई प्रमाण ही नहीं देखते हैं, केवल जीवात्मा के अधिष्ठाता ईश्वर तक ही अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है, फिर अनवस्था कैसे हो सकती है ? ! [ ईश्वर की सिद्धि में आगम प्रमाण ] इस विषय में आगम प्रमाण भी मौजूद है । जैसे की व्याम भगवान ने गीता में लिखा है लोक में ये दो पुरुष हैं-एक क्षर, दूसरा अक्षर । सभी जीवात्मा क्षरपुरुष है और जो कूटस्थ है उसे अक्षर कहते हैं। __ तथा-'(हे अर्जुन ! ) अन्य (-संसारी जीव से भिन्न ) और उत्तम (सर्वज्ञादि स्वरूपवाला) पुरुष ही परमात्मा कहा गया है, जो ऐश्वर्यशाली, अव्यय है और लोकत्रय में आविष्ट हो कर उसका धारण और भरण करता है। ___ तदुपरांत, ईश्वरस्वरूप का प्रतिपादक वेदवाक्य भी उपलब्ध है-'विश्वत' इत्यादि, इस वेदवाक्य का अर्थ ऐसा है "जिसका नेत्र विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सर्वज्ञ है ], तथा जिसका मुख विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो संपूर्ण जगत् का प्रतिपादक है ], जिसका बाहु विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सारे जगत् का सहकारी कारण है ], जिसका पैर विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सारे जगत् में व्यापक है ] ऐसा एक ही देव (ईश्वर) स्वर्ग और भूमि की रचना करता हुआ, जीवों के धर्म-अधर्मरूप दो बाह के सहाय से पतत्रों अर्थात् परमाणुओं को प्रेरित करता है।" [स्वरूपप्रतिपादक आगम भी प्रमाण है ] मीमांसक सकलवेदवाक्यों को प्रमाण नहीं मानते किन्तु विधि-निषेधपरक प्रवर्तक-निवर्तक वाक्यों को ही प्रमाण मानते हैं, केवल वस्तुस्वरूपमात्रप्रतिपादक वाक्यों को प्रमाण नहीं मानते-किन्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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