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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर कर्तृत्वे पूर्वपक्ष: अन्ये त्वाहु:-क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविदधिष्ठितानां यथा प्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामिन्द्रियाणामनियतविषय सर्वविदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे । तथा चेन्द्रियवृस्त्युच्छेदलक्षणं केचिद् मरणमाहुश्चेतनानधिष्ठितानाम् । प्रस्ति च क्षेत्रज्ञानां प्रतिनियतविषयग्रहणम् तेनाप्यनियतविषय सर्वविदधिष्ठितेन भाव्यम् । योऽसौ क्षेत्रज्ञाधिष्ठायकोऽनियतविषयः स सर्वविदीश्वरः । नन्वेवं तस्यैव सकलक्षेत्रेष्वधिष्ठायकत्वात् किमन्तर्गडुस्थानीयैः क्षेत्रज्ञैः कृत्यम् ? न किंचित् प्रमाणसिद्धतां मुक्त्वा । नन्वेवमनिष्ठा यथेन्द्रियाधिष्ठायकः क्षेत्रज्ञस्तदधिष्ठायकश्चेश्वर एवमन्योऽपि तदधिष्ठायकोsस्तु । भवत्वनिष्ठा यदि तत्साधकं प्रमाणं किचिदस्ति, न त्वनिष्ठासाधकं किंचित् प्रमाणमुत्पश्यामः तावत एवानुमानसिद्धत्वात् । की सिद्धि किये जाने में भी विशेषविरुद्धानुमान में व्याप्तिविरह ही दोष है । ईश्वर मे जो सर्वज्ञत्वरूप विशेष अभिप्रेत है उसके विरुद्ध असर्वज्ञत्व को यदि कुम्भकार के दृष्टान्त से सिद्ध करने जायेगे तो दृष्टान्त में साध्य का अभाव होने से व्याप्ति ही न बन सकेगी क्योंकि असर्वज्ञ कर्त्ता कुम्भकार किसी भी कार्य को नहीं कर सकता । शंका:- कुम्भकार को अगर सर्वज्ञ मानेंगे तो फिर असर्वज्ञ कोई रहेगा ही नहीं । उत्तर:- ऐसा ही है । आशय यह है कि कोई भी कर्त्ता जो कुछ भी कार्य उत्पन्न करता है वह उस कार्य के उपादानादिकारणसमूह को और उस कार्य की निप्पत्ति के प्रयोजन को जानता ही है, अन्यथा, उस कर्त्ता से तत्कार्य के उत्पादनार्थ कोई क्रिया ही नहीं हो सकेगी । [ सर्वज्ञता का अर्थ हम यह नहीं कहना चाहते कि सारे विश्व का ज्ञाता हो किन्तु ] प्रस्तुत घटादि कार्य के जितने निमित्त ( कारणवर्ग ) हैं उन सर्व को वह जानता है इस अपेक्षा से ही यहाँ कुम्भकार को सर्वज्ञ मानते हैं । इस से यह फलित होता है कि जैसे कुम्भकारादि कर्त्ता स्वकार्य में उपयोगी उपादानादि सभी को जानता है, उसी तरह ईश्वर सर्वजगत् का कर्ता होने से सारे ही जगत् के करण यानी उत्पादन का प्रयोजन एवं विवादविषयभूत सभी पृथ्वी आदि के उपादान कारणादि को, स्वयं कर्त्ता होने से जानता ही होगा, तो फिर वह असर्वज्ञ कैसे होगा ? ४०१ [ सचेतन देह में ईश्वर के अधिष्ठान की सिद्धि | अन्य विद्वान् कहते हैं - परिमित ही पदार्थ यानी अमुक ही पदार्थ को विषय करनेवाला ज्ञान जिन को होता है वे क्षेत्रज्ञ यानी जीवात्मा सर्वज्ञ पुरुष से अधिष्ठित ही होते हैं । जैसे, जीते हुए ( जिन्दे) शरीर में परिमित-नियत शब्दादि विषय को ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ अनियतविषयवाले सर्वज्ञाता पुरुष से अधिष्ठित ही होती हैं । अत एव किसीने कहा है - चेतन से अनधिष्ठित अर्थात् चेतनाशून्य शरीर का इन्द्रियप्रवृत्तिविनाशरूप ही मरण है । तात्पर्य, इन्द्रिय चेतनाधिष्ठित होने पर ही नियतार्थग्रहण में प्रवृत्ति करती हैं, इसी प्रकार आत्मा को भी नियतार्थविषयक ही ग्रहण होता है अतः वह भी अनियतार्थ विषय वाले सर्वज्ञाता पुरुष ईश्वर से अधिष्ठित होना चाहिये । जो यह अनियतविषयवाला चेतनाधिष्ठाता होगा वही सर्वज्ञ ईश्वर है । प्रश्नः - ऐसे तो सकलक्षेत्रों का अधिष्ठाता ईश्वर ही हो गया, फिर इन्द्रियादि को अन्तर्ग यानी देहगत निष्प्रयोजन ग्रन्थिरूप अंग तुल्य क्षेत्रज्ञ = जीवात्मा से अधिष्ठित मानने की जरूर ही क्या है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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