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सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
के उत्पादन में जो संपूर्ण कारण सामग्री अपेक्षित है वह उससे अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ के साथ नियम से सम्बद्ध नहीं है । इसी प्रकार ज्ञातृव्यापार निष्ठ प्रामाण्य स्व की उत्पत्ति आदि में ज्ञान की सम्पूर्ण सामग्री के स्वरूप से नियमत: संबद्ध है तब उससे अतिरिक्त किसी अन्य गुणादि सामग्री से नियमतः संबद्ध नहीं है । इसलिये कहा जाता है कि प्रामाण्य उत्पत्ति में स्वतः है । वैसे यथावस्थित अर्थनिर्णयरूप कार्य में और अपनी ज्ञप्ति में भी स्वत: है ।
[ परतः प्रामाण्यवादी का अभिप्राय ]
इस विषय में जो (बौद्धमतवाले) विद्वान् प्रामाण्य को उत्पत्ति में परत: = परकी अपेक्षावाला अर्थात् परावलम्बी मानते हैं वे इस प्रकार प्रतिवाद प्रस्तुत करते हैं -
प्रामाण्य में अनपेक्षत्व असिद्ध है । अर्थात् 'प्रामाण्य के लिए प्रामाण्याश्रय ज्ञान की उत्पादक सामग्री से अतिरिक्त कारण आदि की अपेक्षा नहीं है' यह बात असिद्ध है । सामग्री के अलावा अन्य कारणों की अपेक्षा का होना सिद्ध है । वह इस प्रकार
(१) प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति के लिये स्वाश्रयज्ञान के जो उत्पादक कारण है उनसे भिन्न गुणादि कारणों की अपेक्षा रखता है क्योंकि प्रामाण्य यह गुणादि सामग्री के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करने वाला है । जैसे- गुणादि सामग्री रहती है तो प्रामाण्य उत्पन्न होता है, यदि नहीं रहती तो प्रामाण्य की उत्पत्ति भी नहीं होती है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार है - जो चक्षु आदि से अतिरिक्त वस्तु के भाव या अभाव को अनुसरण करने के स्वभाव वाला होता है वह उस वस्तु की अपेक्षा करता है, जैसे-अप्रामाण्य । तात्पर्य यह है कि पीलिया [ = काचकामल] दोष से दूषित नेत्र वाले को श्वेत वस्तु भी पीली दिखाई पड़ती है उसमें नेत्र के अलावा पित्त दोष कारणभूत है । यहाँ पित्त दोष रहने पर पीतदर्शन होता है, न रहने पर नहीं होता है - यही भाव अभाव का अनुसरण हुआ । अतः पीतदर्शन ( भ्रमज्ञान ) पित्त दोष को सापेक्ष है । यद्यपि यह तो अप्रमाण ज्ञान की बात हुयी किन्तु जैसे अप्रामाण्य को विद्यमान ज्ञानसामग्री से अधिक दोष की अपेक्षा है वैसे प्रामाण्य को विद्यमान ज्ञान सामग्री से अधिक गुण की अपेक्षा होती है । इस स्वभावहेतुक अनुमान से प्रामाण्य उत्पत्ति में परसापेक्ष सिद्ध होता है ।
(२) प्रामाण्य अपने कार्य में भी परसापेक्ष है । जैसे, जिनको अन्य बुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है वे अपने कार्यधर्म की स्वतः व्यवस्था यानी संपादन नहीं कर सकते। जैसे कि अप्रामाण्य आदि । आशय यह है कि अप्रामाण्य का कार्य है अर्थ का अयथार्थ परिच्छेद, इस कार्य में उसको अन्य विसंवादी बुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, इसलिये वह स्वतः स्वकार्य संपादक नहीं है । प्रामाण्य भी यथावस्थित अर्थपरिच्छेदरूप अपने कार्य में अन्य सवादी बुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करता है इसलिये वह भी स्वतः स्वकार्यसंपादक नहीं है । प्रस्तुत अनुमान प्रयोग में हेतु का प्रकार विरुद्ध व्याप्तोपलब्धि है । वह इस प्रकार -
साध्यधर्म के विरुद्ध धर्म जो होता है उसका यहाँ विरुद्ध पद से उल्लेख किया है। इस विरुद्ध धर्म से जो व्याप्त हो उसकी प्रतीति विरुद्ध व्याप्त उपलब्धि कही जाती है । प्रस्तुत में स्वतः प्रामाण्यवादी के मत में साध्य है, "स्वतः अर्थात् कारणान्तर-ज्ञानान्तर निरपेक्ष स्वकार्यरूप धर्म का व्यवस्था
* बौद्धमत के आधार पर स्वतः प्रामाण्य के निरसन में अन्तर्गत अभिप्राय के लिये द्रष्टव्य - पृ. १२८ पं. ६ ।
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