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प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः
येऽप्यत्राहः-"सदृश-तादृशभेदेन भावानां विजातीयोत्पत्त्यसम्भवादेतददूषणम्"-तेषामपि सदृश तादृशविवेको नार्वाहकप्रमातृगोचरः, कार्यनिरूपणायामपि तयोविवेको दुर्लभस्तस्मादयमपरिहारः। यः पुनरुच्यते-"सर्वस्य समानजातीयाद्रपादानाइत्पत्तिः, श्राद्यस्यापि धमक्षणस्योपादनत्वेन व्यवस्थापिताः काष्ठान्तर्गता अणवः"-तत्रापि सजातीयत्व न विद्मः । रूपादीनां हि रूपादिपूर्वकत्वेन वा सजातीयत्वम् , धमत्वोपलक्षितावयवपूर्वकत्वेन वा ? प्राच्ये विकल्पे नेदानी विजातीयादुत्पत्तिगारण्य श्वादपजायमानस्य । उत्तर विकल्पेऽपि काष्ठान्तर्गतानामवयवानां धमत्वं लौकिकं पारिभाषिक वा । परिभाषायास्तावदयमविषयः । लोकेऽपि तदाकारव्यवस्थितानामवयवानां नैव धमत्वध्यवहारः। ताकिकेणाऽपि लोकप्रसिद्धव्यवहारानुसरणं युक्तं कर्तुम् । तस्मान्न सजातीयादुत्पत्तिः।
व्याख्याकार कहते हैं कि स्फुरित ज्ञानान्तरजनकत्वरूप व्यवस्था का निमित्त युक्तिसगत नहीं है, क्योंकि कोई भी ज्ञान असंवेदित होने पर उसकी व्यवस्था का संभव नहीं है । अतः ज्ञान का संवेदन तो
नना होगा, वह भी आप को स्वतः ही मान्य है. परत: नहीं, तो अब देखिये कि स्वसंतति में जैसे ज्ञान स्वयंस्फुरित होगा वैसे परसंतति में भी वह स्वयं स्फुरित ही होगा, तो ज्ञानान्तरजनकत्व का स्वयं स्फूरण वहाँ भी समान है अतः उपादानत्व की वहाँ भी अतिप्रसक्ति होगी, उसका वारण नहीं हो सकेगा, क्योंकि परसंतति में ज्ञान को स्वयं स्फुरित न मान कर ज्ञानान्तर-वेद्य माना जाय तभी वहाँ अतिप्रसंग का वारण शक्य है किन्तु बौद्ध मत में ज्ञान नियमत: स्वप्रकाश ही होने का सिद्धान्त है-उसका त्याग कैसे किया जा सकेगा अत: अतिप्रसंग अनिवारित ही रहेगा।
(ज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का नियम नहीं-नास्तिक] यहाँ नास्तिक यह पूर्वपक्ष करता है कि स्वसंतति के ज्ञान में ज्ञानान्तर जनकता तो 'ज्ञान में स्वसंविदितज्ञानपूर्वकता' का नियम माना जाय तभी हो सकती है किन्तु वह नियम ही सिद्ध नहीं है क्योंकि मूर्छा या सुषुप्ति दशा समाप्त होने के बाद जो आद्यविज्ञान होता है उसमें स्वसंविदित ज्ञानपूर्वकता सिद्ध नहीं है । अरे ! वादीवृन्द में तो वहाँ ज्ञानपूर्वकता में भा विवाद है तो स्वसंविदित ज्ञानपूर्वकता की तो बात ही कहाँ ?
शंकाः-ज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का निश्चय तो अनुमान से सुलभ है फिर विवाद क्यों ? और अनुमान तो पहले भी [ पृ. ३१६ पं. ४] दिखाया है कि जिस जाति का कारण हो उसी जाति का काय उत्पन्न होता है अर्थात् कारण-कार्य का साजात्य ही ज्ञान में ज्ञानजन्यता का साधक है।
समाधान:-आपकी शंका असार है क्योंकि भिन्नजातीय कारण से भी पदार्थों की उत्पत्ति देखी जाती है, उदा० अग्नि और धूम में साजात्य न होने पर भी कारण-कार्यभाव सिद्ध है।
[सदृश-तादृश विवेक अल्पज्ञ नहीं कर सकता-नास्तिक ] जिन लोगों का कहना है कि-"जिस पदार्थ से अपर पदार्थ की उत्पत्ति होती है वह कारणभूत पदार्थ या तो कार्य से सदृश होता है जैसे कि बीज से बीज की उत्पत्ति, अथवा वह कार्य से तादृश होता है जैसे वीज से अंकूर की उत्पत्ति । इस प्रकार कोई भी पदार्थ सदृश अथवा तादृश कारण से ही उत्पन्न होता है, विसदृश अथवा विजातीय से उत्पन्न नहीं होता। अतः पूर्वोक्त किसी भी दूषण को अवकाश नहीं । तात्पर्य, धूम की उत्पत्ति में कारणभूत अग्नि धूम का 'तादृश' कारण होने से यहाँ
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