SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अत्र केचित तुल्येऽपि जनकत्वे स्वपरसन्तानगतयोरुपादानत्वे कारणमाहुः- "स्वसन्ततौ चेतितं ज्ञानं ज्ञानान्तरजनकम् , न त्वेवं परसन्ततौ, अतोऽजनकत्वव्यतिरिक्तस्योपादान कारणत्व निमित्तस्य संभवादित्थंभूतात हेतुफलभावाद् व्यवस्था।"-अस्यापि व्यवस्थानिमित्तत्वमयुक्तम्, नहि ज्ञानमसंवेदितं व्यवस्थां लभते। संवेदनं हि ज्ञानानां स्वत एवेष्यते. तच्च स्वसन्ततिपतिते इव परसंततिपतितेऽपि तुल्यम् । ज्ञानान्तरवेद्यत्वं तु न शाक्यैरभ्युपगम्यते ज्ञानस्य नियमत इति नायमप्यतिप्रसंगपरिहार। न च स्वसन्ततावपि स्वसंविदितज्ञानपूर्वकता ज्ञानस्य सिद्धा मूर्खाद्यवस्थोत्तरकालभाविज्ञानस्य तथात्वानवगमाव; यतो विज्ञानपूर्वकत्वेऽपि तत्र विप्रतिपन्ना वादिनः कुतः पुन: संविदितज्ञानपूर्वकत्वम् । तत्रैतव स्यात्-विज्ञानपूर्वकत्वस्यानमानेन निश्चयात कथं विप्रतिपत्तिः ? तच्च शितम् 'तज्जातीयात तज्जातीयोत्पत्तिः' इति । एतदसत, प्रतज्जातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनाद यथा धूमावेः। ज्ञान विषयविधया कारण है और दोनों में कुछ अंश में समानता भी है तो दोनों जान एकसन्तान के सभ्य बन जायेंगे। अगर केवल अनन्तरत्व को ( यानी पूर्ववत्तिता को ) ही उपादानत्व कहा जाय तब तो कोई एक विवक्षित क्षण में पूर्वक्षणभावि समस्त जगत के अनन्तर ( उत्तरक्षण में ) पूरा जगत् उत्पन्न होता है अत: पूर्वक्षणवर्ती पूरा जगत् , उत्तरक्षणवर्ती पूरे जगत् का उपादान बन जाने से सारा जगत् केवल एकसन्तानरूप बन जायेगा। [देशिक आनन्तर्य उ. उ. भाव में अघटित ] यदि कहें कि-वहाँ कालिक आनन्तर्य होने पर भी दैशिक आनन्तर्य पूरे जगत् में नहीं है अत: सारे जगत् में उपादानताप्रसंगमूलक एकसन्तानत्व की आपत्ति नहीं होगो-तो यह कथन भी उपयोगी नहीं, व्यर्थ है, क्योंकि दैशिक आनन्तर्य उपादान-उपादेय में होने का नियम ही नहीं घट सकता। कारण, जिस देश में भावि जन्म होगा, उस जन्म के चित्त के प्रति इस जन्म का चित्त जो कि भिन्न देश में है, उपादान बनता है-यह आप भी मानते हैं। केवल प्रत्ययत्व को भी उपादानत्व नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रत्ययत्व तो सहकारी कारण में भी होता है। सारांश, समनन्तर प्रत्ययत्व को उपादानत्व कहना यूक्त नहीं है। तथा, क्षणिकवादखंडन के प्रतिपादन के प्रसंग में यह भी दिखाया जायेगा कि प्रतिक्षण नश्वर स्वभाववाले पदार्थों में जब लग किसी भी प्रकार से एक अन्वयो तत्त्व न मानेगे तब तक कारणता भी संगत न हो सकेगी तो फिर उपादान-सहकारी आदि विभाग की तो बात ही कहाँ ? ! [स्वसंतति में ज्ञानम्फुरण से उपादाननियम अशक्य ] इस संदर्भ में कुछ विद्वान विज्ञानक्षण में, स्व-परसन्तान अन्तर्गत कार्यक्षण के प्रति तुल्य जनकता होने पर भी स्वसन्तानवर्ती कार्य का ही वह उपादान है-इस में कारण बता रहे हैं "ज्ञान में ज्ञानान्तरजनकत्व का स्फुरण केवल अपनी सन्तति में ही होता है परसंतति में ऐसा स्फुरण नहीं होता। इस प्रकार अजनकत्व से भिन्न यानी स्वसंतति में स्फुरित जनकत्व स्वरूप उपादानकारणता का निमित्त सम्भवित होने से, इस प्रकार के निमित्त पर अवलंबित हेतु-फल भाव से उपादान ज्ञान की व्यवस्था हो सकती है।" * लिंबड़ी की प्रति में 'चेतितं ज्ञानान्तरजनकत्वं' ऐसा पाठ है, पाठशद्धि के लिये विशेष शुद्ध प्रति की यहां आवश्यकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy