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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ स्यात् , तत्स्वभावजन्यत्वात , तदुत्तरजानक्षणवत। अथ b स्वभावान्तरेण तदोपादानाभिमतं ज्ञान द्विस्वभावमासज्यते । यथा चोपादान-सहकारिस्वभावरूपद्रययोगस्तथा त्रैलोक्यान्तर्गतायकार्यान्तरापेक्षया तस्याऽजनकत्वमपि स्वभावः, ततश्चेकत्वं ज्ञानक्षणस्य यथोपादान सहकार्यऽजनकत्वानेकविरुद्धधर्माध्यासितस्याल्नुपरम्यते तथा हर्ष-विषादायनेकविवर्तात्मनस्तत्सन्तानस्याप्यभ्युपगन्तव्यम् । अथोपादान-सहकार्यजन करवायो धर्मात्तत्र कल्पनाशिल्पिकल्पिताः, एकत्वं तु तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धमिति न तैस्तदपनीयत इति मतिस्तात्मनोऽप्येकत्वं सन्तानशब्दाभिधेयतया प्रसिद्धस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धस्य क्रमरटर्ष विषादादिकार्यदर्शनाऽनुमीयमानतदपेक्षजनकत्वाऽजनकत्वधर्मापनेयं न स्यात् । तन्न स्वगतसकलधर्माधायकत्वमुपादानत्वं भवद भ्युपगमेन संगतम् । _A नापि सन्ताननिवृत्त्या कार्योल्पादकत्वस्वभावं, तथाऽभ्युपगमे ज्ञानसन्ताननिवृत्तेः परलोकाभावप्रसंगः। भी उपादेयभात्मक विज्ञानस्य ही हो जायेगा क्योंकि रूपादि उसी स्वभाव से ही उत्पन्न है जिस स्वभाव से उत्तरज्ञानक्षण उत्पन्न होता है, अतः समानस्वभाव से उत्पन्न उत्तरज्ञानक्षणवत् रूपादि भी समान यानी विज्ञानरूप ही होगा। यदि अन्य स्वभाव से रूपादि की उत्पत्ति होती है,तो उपादानरूप स मान्य विज्ञानक्षण में स्वभावदय प्रसक्त होगा। तदपरांत, जैसे एक ही क्षण उपादानस्वभाव और सहकारिस्वभाव ये दोनों से युक्त है, वैसे सकल भूमंडल अन्तर्गत अन्य जो जन्य कार्य हैं उनकी अपेक्षा उसा क्षण में अजनकत्व स्वभाव भी मानना होगा, क्योंकि उन सभी कार्यों का वह एक क्षण अजनक भी हैं । [ इससे क्या सिद्ध हुआ ? उ० ] इससे यह फलित होगा कि जैसे एक ही ज्ञानक्षण उपादानस्वभाव, सहकारिस्वभाव और अजनकत्व आदि परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्टित होने पर भी उसका एकत्व अक्षुण्ण है वैसे ही हर्द-खेद आदि अनेक विवर्तस्वरूप भिन्नकालीन परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्ठित जो देवदत्तादि सन्तान है उसी का भी एकत्व मानना होगा। तात्पर्य, देवदत्तसंतान में एक अनुगत आत्मा सिद्ध हुआ। [ कल्पित धमों से एकल्य अखंडत रहने पर एकात्मसिद्धि ] पूर्वपक्षीः एक ज्ञानक्षण में जो उपादान - सहकारी अजनकत्वादि धर्म हैं वे सब कल्पना शिल्पी से कल्पित है, वातव नहीं है, उन कल्पित परस्परविरुद्ध धर्मों से उस क्षण का स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्ध वास्तव एकत्व खंडित नहीं हो सकता। उत्तरपक्षी:-अगर ऐली आपकी मान्यता है तब तो यह भी मान लेना चाहिये कि पूर्वापर क्षणों में आत्मा का जो वास्तविक एकाव है वह भी. जनकत्व और अजनकत्वादि विर के योग से खण्डित नहीं होगा, क्रमिक हर्ष खेद आदि कार्यों के देखने से हर्षादि कार्यों की अपेक्षा जनकत्व का और शेष जन्य कार्यों की अपेक्षा अजन करव का तो एक आत्मा में केवल अनुमान ही किया जाता है, यानी वे कल्पित ही हैं। उपरोक्त चर्चा का सार यही है कि 'स्वगत सकल धर्मों का आधायकत्व' यह उपादान का लक्षण आपकी ही अन्य मान्यता के अनुसार असंगत सिद्ध होता है। ___A उपादान का जो प्रथम लक्षण किया गया था-'संतान की निवृत्ति होकर कार्य की उत्पत्ति करने का स्वभाव' वह लक्षण भी असंगत है क्योंकि इस पक्ष में ज्ञानसंतान की निवृत्ति हो कर अन्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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