________________
प्रथमखण्ड - का० १ - परलोकवाद:
अथ येषां कारणमेव कार्यतया परिणमति तेषां भवत्वयं दोषो, न त्वस्माकं प्राग्भावमात्रं कारणत्वमभ्युपगच्छताम् । नन्वत्रापि मते येन स्वरूपेण विज्ञानमुपादेयं विज्ञानान्तरं जनयति कि तेनैव रूपमेकसामग्र्यन्तर्गतम् ? b उत स्वभावान्तरेण ? तत्र a यदि तेनैव तदा रूपमपि ज्ञानमुपादेयभूतं
३६१
रसादिज्ञान से ही उत्पन्न होता है । 'सविकल्पज्ञान के पूर्व तो निर्विकल्पज्ञान होता है और रसाद्याकारज्ञान पूर्व तो वहाँ रूपाकारज्ञान था तो सदृशज्ञान कहाँ से आया ? ऐसी शंका करने की जरूर नहीं क्योंकि एक ही काल में अनेक विज्ञान संतान मानते हैं अतः उपरोक्त कोई दोष नहीं है । अर्थात् अनेक विज्ञान संतान की मान्यता होने से सभी ज्ञान स्वसदृशज्ञान से ही उत्पन्न होता है, यह भी मान सकते हैं ।" - तो ऐसा कहने वाले के दर्शन ( = मत ) में एक ही देवदत्तादिसंतान में अनेक प्रमाता मानने का अतिप्रसंग आयेगा, फलतः गोदर्शन के बाद अश्वदर्शन होगा तो उन दोनों का भिन्न सन्तान मानना पड़ेगा, इसका दुष्परिणाम यह आयेगा कि - गोदर्शन और अश्वदर्शन भी भिन्नसन्तानवर्त्ती हो जाने से एक सन्तान में दर्शन होने पर दूसरे सन्तान को अनुसंधान नहीं हो सकेगा, क्योंकि देवदत्त ने देखा हो तो यज्ञदत्त को उसका अनुसंधान नहीं होता उसी प्रकार अन्य संतान के अनुभव का अनुसंधान दूसरे सन्तान को नहीं हो सकता । दिखता भी है ( श्लोकवार्तिक में कहा है ) 'पहले मैंने गाय को जाना था और अब अश्व को जान रहा हूँ' ।
[ सकलविशेषाधान पक्ष में सहकारिकथा विलोप ]
दूसरी बात यह है कि कारणगत सकल विशेषों का कार्य में आघान मानेगे तो उपादेयज्ञानक्षण की उत्पत्ति में ही उपादानज्ञानक्षण सर्वांश उपयुक्त व्यापृत हो जायेगा, उसका कोई अंश ऐसा नहीं बचेगा जो वहाँ अनुपयुक्त हो, अर्थात् उपादानक्षण में ऐसा कोई अन्य स्वभाव ही नहीं है जो वहाँ अनुपयुक्त रहा हो। इस स्थिति में योगिज्ञान के प्रति, एवं एक सामग्री अन्तर्गत रूपादि अन्य कारणों का वह उपादानज्ञानक्षण सहकारी नहीं बन सकेगा, क्योंकि वहाँ सहकारी बनने के लिये कोई अवशिष्ट अनुपयुक्त स्वभाव ही नहीं है । जब वह किसी का भी सहकारी नहीं है तो फलित यह होगा कि किसी भी कारण से केवल उपादेयक्षणात्मक कार्य की ही उत्पत्ति होती है सहकार्यरूप कार्य की कभी नहीं । तात्पर्य, सहकारीकारण की कथा नामशेष हो जायेगी ।
[ प्राग्भावमात्रस्वरूप कारणता के ऊपर दो विकल्प ]
पूर्वपक्षी:- आपने जो उपादेयक्षणभिन्न कार्य के अनुत्पाद का दोष दिखाया है वह तो उन परिणामवादियों के मत में होगा जो मानते हैं कि कारण ही कार्यात्मक परिणाम में परिणत हो जाता है, क्योंकि कारण सर्वात्मना उपादेयकार्य में परिणत हो जाने से उपादेयकार्य से भिन्न किसी भी कार्य का उत्पाद ही शक्य न होगा । हमारे मत में ऐसा नहीं है, हम ता मानते हैं कि जो केवल पूर्ववर्ती हो वही कारण है । उपादेयक्षण का वह जैसे पूर्ववर्ती है वैसे सहकार्य रूपादि का भी पूर्ववर्त्ती होने से दोनों कार्य एक ही क्षण से उत्पन्न हो सकेंगे ।
Jain Educationa International
उत्तरपक्षी :- अरे, इस पक्ष में भी यह प्रश्न होगा कि a विज्ञान जिस स्वरूप से ( स्वभाव से ) उपादेयक्षणात्मक अन्य विज्ञान को उत्पन्न करता है, क्या उसी स्वभाव से एकसामग्री अन्तर्गत रूपादि को उत्पन्न करेगा ? b या अन्य स्वभाव से ? a यदि उसी स्वभाव से, तब तो उत्पन्न होने वाले रूपादि
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org