SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद ३५७ प्रसक्तिः स्यात् । अथ स्वसन्ततावुपादानोपादेयभावेन ज्ञानानां जन्यजनकभावः, भिन्नसंततौ तु सहकारिभावेन तद्भाव इति नाऽयं दोषः । ननु किं पुनरिदमुपादानत्वं यदभावाद् भिन्नसन्तानेऽनुसन्धानाभाव: ? A यत् स्वसंततिनिवृत्तो कार्य जनयति तदुपादानकारणम, यथा मत्पिण्डः स्वयं निवत्तमाना घटमुत्पादयतीति स घटोत्पत्तावुपादानकारणम्- B अथवाऽपरम , अनेकस्मादुत्पद्यमाने कार्य स्वगत. विशेषाधायकं तत् , न त्वेवं निमित्तकारणम् ? ननु प्रतिक्षणविशरारुष्वेकस्वभावपौर्वापर्यावस्थितज्ञानस्वभावेषु क्षणेषपादानोपादेयभाव एव न व्यवस्थापयितु शक्यः। तथाहि-उत्तरज्ञानं जनयत पूर्वज्ञानं कि नष्टं जनयति b उताऽनष्टम् , c उभयरूपं, d अनुभयरूपं वा? a न तावन्नष्ट, चिरतरनष्टस्येवानन्तरनष्टस्याप्यविद्यमानत्वेना. संतीनीयों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न एक सन्तान मानेगे तो यह शब्दान्तर से आत्मा का ही कथन हआ, जिस के एकत्व के साथ अनुसंधान गाढसंलग्न है। अगर वह संतान संतानीयों से अभिन्न है तब पूर्वोत्तरअनेकक्षण ही संतानी शब्द के वाच्य हए और उन सन्तानीयों में तो देवदत्तज्ञान-यज्ञदत्तज्ञान की तरह अत्यन्त भेद होने से उससे अभिन्न सन्तान भी भिन्न भिन्न हो गया, जब एक संतान ही नहीं रहा तो वह एकत्वअनुसंधान का निमित्त भी कैसे बन सकेगा ? [ कार्यकारणभावमूलक एकसंतानता की समीक्षा ] पूर्वपक्षी:-एकसन्ततिपतित पूर्वोत्तरज्ञानरूप सन्तानीयों में यद्यपि भेद है, तथापि उनमें कार्यकारणभाव होता है और तन्निमित एकसन्तानता भी मानी जाती है, अब तो एकसन्तानमूलक अनुसंघानप्रतीति हो सकती है। यज्ञदत्त देवदत्त सन्तानों में कार्यकारणभाव न होने से तन्मूलक एकसन्तानता के अभावअनुसंधान की आपत्ति नहीं होगी। उत्तरपक्षी:-यज्ञदत्तज्ञान और देवदत्तज्ञान में भी निम्नोक्त रीति से कार्य-कारणभाव संभव है-जब देवदत्त की चेष्टा और जल्पन रूप लिग से यज्ञदत्त को देवदत्तसंतानगत ज्ञान का अनुमान होता है तब यज्ञदत्त के अनुमानज्ञान में विषयविधया देवदत्तज्ञान भी कारण बना, तो कार्य-कारणभाव यहाँ अक्षुण्ण होने से तन्मूलक एकस तानता के प्रभाव से अनुसंधान का प्रसंग तदवस्थ ही रहेगा। पूर्वपक्षी:-देवदत्त के अपने संतान में, पूर्वापरज्ञान में जो कार्यकारणभाव होता है वह उपादान-उपादेय भाव रूप होता है। देवदत्त और यज्ञदत्त दोनों के भिन्न सन्तान में जो आपने कार्यकारणभाव दिखाया, वहाँ तो देवदत्त का ज्ञान यज्ञदत्तज्ञान में सहकारि भाव रूप से जनक है, अनुसंधान तो वहाँ ही हो सकता है जहाँ उपादानोपादेयभावात्मक कार्यकारणभाव हो। [उपादान-उपादेयभाव में दो विकल्प ] उत्तरपक्षीः जिस उपादानोपादेयभाव के अभाव से आप भिन्न संतान में अनुसंधानाभाव दिखाते हो, यहां उपादान किसको आप कहते हैं ? दो प्रकार के उपादान हो सकते हैं-(A) जो अपनी सन्तति की निवृत्ति होने पर कार्य की उत्पत्ति करे वह उपादान कारण कहा जाता है-जैसे: मृत्पिड का सन्तान चला आ रहा है, जब वह निवृत्त होता है तब घटोत्पत्ति होती है तो वहां मृत्पिड को घट का उपादान कारण कहा जाता है । अथवा दूसरा-(B) अनेक कारणों से कार्य उत्पन्न होता है वहाँ जो कारण अपनी विशेषताओं का आधान उसके कार्य में करता हो वह उपादान कारण । जैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy