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________________ ३५६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ भवतु वाऽनुसन्धानप्रत्ययलक्षणाद्धेतोस्तदेकत्वसिद्धिस्तथापि नेतरेतराश्रयदोषः, यतो नैकत्वप्रतिबद्धमनुसंधानमन्वयिदृष्टान्तद्वारेण निश्चीयते, येनायं दोषः स्यात् , अपि त्वनेकत्वेऽनुसंधानस्याऽसम्भवात् ततो व्यावृत्तमनुसंधानं तदेकत्वेन व्याप्यत इत्येकसन्ताने स्मरणाधनुसंधानदर्शनादनुमानतोऽपि तसिद्धिः । न च भेदे दर्शन-स्मरणादिज्ञानानामनुसंधान सम्भवति, अन्यथा देवदत्तानुभूतेऽर्थे यज्ञदत्तस्य स्मरणाद्यनुसंधानं स्यात् । अथ देवदत्त-यज्ञदत्तयोरेकसन्तानाभावान्नानुसंधानम्, यत्र त्वेकः सन्तानस्तत्र पूर्वाऽपरज्ञानयोरस्यन्तभेदेऽपि भवत्येवानुसंधानम् । ननु सन्तानस्य यदि सन्तानिभ्यो भेद एकत्वं च तदा शब्दान्तरेण स एवात्माऽभिहितो यत्प्रतिबद्धमनुसन्धानम् । अथ संतानिभ्योऽभिन्नः सन्तानस्तदा पूर्वोत्तरज्ञानक्षणानां सन्तानिशब्दवाच्यानां देवदत्त यज्ञदत्तज्ञानवदत्यन्तभेदात् तदभिन्नस्य संतानस्यापि भेद इति कुतोऽनुसन्धाननिमित्तत्वम् ? । अथैकसंततिपतितानां पूर्वोत्तरज्ञानसंतानिनां कार्य-कारणभावाद् भेदेऽप्येकसन्तानत्वं तन्निबन्धनश्चानुसन्धानप्रत्ययो युक्तः, न पुनर्देवदत्त-यज्ञदत्तज्ञानयोः कार्यकारणभावः, अतस्तन्निबन्धनसन्तानाभानिमित्तस्तत्रानुसंधानाभावः ननु । देवदत्तज्ञानं यज्ञदत्तेन यदा व्यापार-व्याहाराविलिंगबलादनुमीयते तदा तद् यज्ञदत्तानुमानजनकं भवतीति कार्यकारणभावनिमित्तकसन्ताननिबन्धनानुसंधान वास्तविकता तो यह है कि दृष्टा और स्पर्शकर्ता की प्रत्यभिज्ञा में एकत्व का अबाधित रूप से भान होता है अतः उस प्रत्यभिज्ञा के विषयभूत आत्मा का एकत्व असिद्ध नहीं है। प्रत्यभिज्ञा में जो एकत्व का अध्यवसाय होता है उसका कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है, तथा जिस जिस प्रमाण की आप उसके बाधक रूप में सम्भावना करेंगे उन सभी का अग्रिम ग्रन्थ में उचित अवसर पर निषेध भी किया जाने वाला है। [ अनुसंधानप्रतीति से एकत्यसिद्धि में अन्योन्याश्रय नहीं ] बौद्ध ने जो पहले यह कहा था कि आत्मा का एकत्व सिद्ध होने पर एकत्वाविनाभावि प्रत्यभिज्ञा-अनुसंधानप्रतीति की सिद्धि होगी और अनुसंधान की सिद्धि होने पर आत्मा के एकत्व की सिद्धि होगी-इसके ऊपर व्याख्याकार कहते हैं कि अनुसंधानप्रतीति से आत्मा के एकत्व की सिद्धि मान लेने पर भी यहाँ इतरेतराश्रय दोष निरवकाश है क्योंकि हम अन्वयिदृष्टान्त से प्रत्यभिज्ञा में एकत्व का अविनाभाव सिद्ध करना नहीं चाहते हैं कि जिस से वह दोष हो, किन्तु अगर पूर्वापरज्ञान का आश्रय एक आत्मा न होकर अनेक आत्मा मानेगे तो यह प्रत्यभिज्ञा ही नहीं होगी इस प्रकार अनेकत्व होने पर निवर्तमान अनुसंधान का एकत्व के साथ अविनाभाव निश्चित किया जाता है । अतः एक ही ज्ञानसंतान में स्मरणादिरूप अनुसंधान के देखे जाने से अनुमान द्वारा भी एकात्मा सिद्ध होता है। यदि दृष्टा और स्मरणकर्ता भिन्न मानेंगे तो दर्शन और स्मृतिज्ञान में एककर्तृत्व का अनुसंधान ही नहीं हो सकेगा, यदि भेद में भी अनुसंधान मानेंगे तो, अनुभव देवदत्त करेगा तो यज्ञदत्त को उसका स्मरणात्मक अनुसंधान होने लगेगा। [भिन्न सन्तान के स्वीकार में आत्मसिद्धि ] यदि यहाँ बचाव किया जाय कि - यज्ञदत्तज्ञानसन्तान और देवदत्तज्ञानसन्तान भिन्न होने से एक के अनुभव से दूसरे को अनुसंधान होने की आपत्ति नहीं है, जहाँ पूर्वापरज्ञानों का सन्तान एक होता है वहाँ उन ज्ञानों में अत्यंत भेद होने पर भी अनुसंधान हो सकता है तो यहाँ दो विकल्प हैं-वह संतान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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