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________________ ३५० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ नच 'कृशोऽहं' 'स्थलोऽहं' इति शरीरसामानाधिकरप्येनाऽस्य प्रत्ययस्योपपत्तेस्तदालम्बनता, चक्षुरादिकरणव्यापाराभावे शरीरस्याऽग्रहणेऽपि 'अहम्' इति प्रत्ययस्य सुखाविसमानाधिकरणत्वेन परिस्फुटप्रतिभासविषयत्वेनोत्पत्तिदर्शनाद , न शरीरालम्बनत्वमस्य व्यवस्थापयितु युक्तम् । न च 'कृशोऽहँ' इति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वे 'ज्ञानवानहम्' इति ज्ञानसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यापि प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वं युक्तम् , अन्यथा 'अग्निर्माणवकः' इति माणवकेऽग्निप्रत्ययस्योपचरितविषयस्य भ्रान्तत्वेऽग्नावपि तत्प्रत्ययस्योपचरितत्वेन भ्रान्तत्वं स्यात् । अथ तत्र पाटव-पिंगलत्वादिलक्षणस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावाद् भवति तत्रोपचरित: प्रत्ययः, न चात्रोपचारनिबन्धनं किंचिदस्ति । तदप्यसंगतम् , संसार्यात्मनः शरीराद्युपकृतत्वेन तदनुबद्धस्योपभोगाश्रयत्वेनोपभोगकर्तृत्वस्यात्राप्युपचारनिमित्तस्य सद्भावात् । दृष्टश्च शरीरादिव्यतिरिक्तेऽप्यत्यन्तोपकारके स्वभृत्यादावुपचरितस्तन्निमित्तः 'योऽयं भृत्यः सोऽहम्' इति प्रत्ययः। चित्स्वरूप प्रमाता और प्रमाण को भी अस्वसंविदित मानना गलत है, क्योंकि जो चित्स्वरूप है उसमें स्वसंविदितत्व से अन्य और जो जड है उसमें परसंविदितत्व से अन्य स्वभाव घटित नहीं है। यह भी जो कहा था-इन्द्रिय जब सक्रिय बनती है तब देह से भिन्न केवल घटादि विषय का ही अवभास होता है [ पृ० ३२४ ]-यह तो कतई ठीक नहीं, क्योंकि जैसे देहभिन्न विषय का अवभास होता है वैसे देह भिन्न प्रमाण-ज्ञान और आत्मा का भी अवभास पूर्व में सिद्ध कर दिया है और यह भी बताया है कि प्रमाण के अवभास के विना अर्थ की व्यवस्था यानी विषयावभास भी उपपन्न नहीं हो सकता। निष्कर्ष:-प्रमाता का अ [ 'कृशोऽहं' इत्यादि शरीरसमानाधिकरण प्रतीति भ्रान्त है पूर्वपक्षी:-'अहम्' इत्याकारक प्रत्यक्ष प्रतीति का विषय शरीर है, क्योंकि 'मैं स्थूल हूँ' 'मैं पतला हूँ' इन प्रतीतियों में देहस्थूलता और देह कृशता के साथ अहंत्व का सामानाधिकरण्य स्पष्ट भासित हो रहा है। उत्तरपक्षी:-यह ठीक नहीं, क्योंकि नेगदि इन्द्रिय निष्क्रिय होने पर देहमान नहीं होता है तब भी 'मैं सुखी हैं' इत्यादि रूप से सुखादि के साथ समानाधिकरणरूप से 'अहं' इत्याकारक प्रतीति की उत्पति देखी जाती है, जिसमें देह-भिन्नात्मविषयता स्पष्ट रूप से उपलक्षित होती है । अतः अहं' बुद्धि को देहविषयक प्रस्थापित करना युक्त नहीं है। इससे यह भी सिद्ध है कि 'अहं स्थूल:' यह प्रतीति भ्रान्त है। किन्तु उसके समान ज्ञानसमानाधिकरणतया उत्पन्न होने वाली 'मैं ज्ञानवान हूँ' इस प्रतीति को भी भ्रान्त मानना कतई उचित नहीं है। अन्यथा दूसरे स्थल में 'माणवक अग्नि है' इस प्रकार माणवक में उपचरित विषय वाली अग्नि की प्रतीति भ्रान्त है तो शुद्ध अग्नि की प्रतीति में भी ओपचारिकता का आपादन करके भ्रमत्व की आपत्ति दी जा सकेगी। [ देह में अहमाकार बुद्धि औपचारिक है ] पूर्वपक्षी:-अग्नि में जो पटुता (अग्रता) और पिंगलवर्णादि हैं तत्स्वरूप उपचार के निमित्तों का अस्तित्व माणवक में भी होने से उसमें अग्नि की उपचरित बुद्धि भ्रान्त हो सकती है। सत्य अग्नि में अग्नि की वृद्धि और देह में अहमाकार बुद्धि भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ कोई उपचार का मूलभूत निमित्त नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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