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प्रथम खण्ड-का० १ - परलोकवाद:
न्यविरुद्धानि कि नाभ्युपगम्यन्ते तत्तद्धर्मयोगात् तत्तत्स्वभावत्वस्य प्रमाणनिश्चितत्वेनाऽविरोधात् ? !
यच्चोक्तं- प्रमाणाऽविषयत्वेऽपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः इत्यादि, तदप्यसारम्, ज्ञातृतया प्रमाणत्वेन च स्वरूपावभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । न च घटादेः स्वरूपस्य भिन्नज्ञानग्राह्यत्वात् प्रमातुः प्रमाणस्य च स्वरूपं भिन्नज्ञानग्राह्यं तयोश्चिद्रूपत्वेन घटादेस्तु तद्विपर्ययेण स्वरूपस्य सिद्धत्वात् । न च प्रमाण प्रमातृस्वरूप ग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य तल्लक्षणेनाऽसंग्रहः, तत्संग्राहकस्य लक्षणस्य प्रदर्शितवात् । यदपि - 'घटमहं चक्षुषा पश्यामि' इत्यनेनातिप्रसंगापादनं कृतम् तदप्यसंगतम्, नहि चक्षुषो जडरूपस्याऽसंविदितत्वे प्रमातृ- प्रमित्योरपि चिह्नपयोरस्वसंविदितत्वं युक्तम्, प्रन्यस्वभावत्वानुपपत्तेः । यत्तूक्तम् 'इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद् व्यवच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्यावभासनम्' इति, तदत्यन्तमसंगतम्, विषयस्येव तदवभास संवेदनस्यापि व्यवस्थापितत्वात् तदभावे विषयावभास एव न स्यादित्यस्य च । अतः प्रमात्रावभास उपपन्न एव ।
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असंगत है क्योंकि अपने से भिन्न व्यापार के अभाव में भी कर्त्तारूप आत्मा और प्रमाणरूप ज्ञान स्वयंसंविदित होने का प्रतिपादन इस तरह कर दिया है कि ज्ञान यदि स्वसंविदित नहीं मानेंगे तो अर्थ की व्यवस्था नहीं होगी, और ज्ञान से आत्मा भिन्न न होने से वह भी स्वसंविदित सिद्ध होता है ।
तथा आत्मा को प्रत्यक्ष न मान कर अनुमेय मानने पर आत्मप्रतीति में, स्वात्मा में क्रिया विरोध को हठाने के लिये आपने जैसे यह माना है कि लिगादि करण की अपेक्षा से अवस्थाभेद से एक ही व्यक्ति में प्रमातृत्व और प्रमेयत्व अविरुद्ध है- वैसे ही एककाल में भी आत्मा में अनेक धर्मों का अस्तित्व होने से भिन्न भिन्न धर्म को अपेक्षा से प्रमातृत्व प्रमाणत्व और प्रमेयत्व अविरुद्ध होने का क्यों नही मानते हैं ? वस्तु में भिन्न भिन्न धर्म के योग से भिन्न भिन्न प्रकार का स्वभाव होना यह तो प्रमाण से सुनिश्चित है तो इसमें विरोध क्या ?
[ आत्मा की अपरोक्षता कथन का तात्पर्य ]
और भी जो आपने पूछा है आत्मा प्रमाण का विषय न होने पर भी अपरोक्ष है इस कथन का क्या अर्थ है ? - यह भी सारहीन प्रश्न है, क्योंकि आत्मा ज्ञाता होने से प्रमाणत्वरूप से अपने स्वरूप का ही अवभास होना यह अपरोक्षता होने का वहाँ हो कहा है। उसके ऊपर जो घटादि में समानता दिखायी है वह ठीक नहीं है क्योंकि घटादि का स्वरूप घटादि से भिन्न ज्ञान से ग्राह्य है, प्रमाता और प्रमाण का स्वरूप स्वभिन्नज्ञान से ग्राह्य नहीं है । कारण, प्रमाण और प्रमाता का स्वरूप चैतन्यमय है जब कि घटादि का स्वरूप उससे विपरीत, जडात्मक होने का सिद्ध है । तथा प्रमाण और प्रमाता का स्वरूपग्राहक प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष के लक्षण से संगृहीत नहीं हो सकता ऐसा भी नहीं है क्योंकि हमारा जो 'इन्द्रिय- अनिन्द्रियजन्य विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है' यह लक्षण है उससे उसका संग्रह हो जाने का बता दिया गया है । [ पृ० ३२८ ]
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[ नेत्रेन्द्रियप्रत्यक्षात का प्रतिकार ]
यह जो अतिप्रसंग आपने दिखाया था- 'मैं घट को नेत्र से देखता हूँ' इस प्रतीति से नेत्रेन्द्रिय का भी प्रत्यक्ष सिद्ध होगा - यह भी नहीं है क्योंकि नेत्रेन्द्रिय जडरूप होने से अस्वसंविदित होने पर
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