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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड , अथ शाब्दे वस्तुस्वरूपावभासेऽपि न सकलतद्गतविशेषावभास इत्यस्पष्टप्रतिभासं तत् । नन्वेवं प्रत्यक्षावभासिनो विशेषस्यार्थक्रियाक्षमस्य तत्राप्रतिभासना भिन्नविषयत्वं शाब्दाऽध्यक्षयोः प्रसक्तम् । अथोभयत्रापि व्यक्तिस्वरूपमेकमेव नीलादित्वं प्रतिभाति, विशदाविशदौ चाकारौ ज्ञानात्मभूतौ । नन्वेवमक्षसंबद्धे विषये प्रतिभासमाने तत्कालः स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास इति प्राप्तम् , विशिष्टसामग्रीजन्यस्य ज्ञानस्य विशदत्वात , तदवभासव्यतिरेकेण तु अक्षसंबद्धनीलप्रतिभासकालेऽन्यस्य भवदभ्युपगमेन वैशद्यप्रतिभासनिमित्तस्याऽसम्भवात् ।। अथ च भवतु विशदज्ञानप्रतिभासनिमित्त एव तत्र वैशद्यप्रतिभासव्यवहारस्तथापि न स्वसंविदिततज्ज्ञान सिद्धिः, तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽपि तद्व्यवहारस्य सम्भवात् , एककालावभासव्यवहारस्तु लघुवृत्तित्वान्मनस: क्रमानुपलक्षणनिमित्त उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् । नन्वेवं सत्यङ्गुलिपञ्चकस्यैकज्ञानावभासोऽपि क्रमावभासे सत्यपि तत एव क्रमप्रतिभासानुपलक्षणकृत इति 'सदसद्धर्मः सर्वः कस्यचिदकेज्ञानप्रत्यक्षः प्रमेयत्वात् , पञ्चाङ्गुलीवत्' इति सर्वसाधकप्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यविकल यानी परिपूर्ण विषयस्वरूप का भास होता है तो वहां भी स्वरूपप्रतिभासरूप काय से इन्द्रियसम्बन्ध का अनुमान क्यों नहीं हो सकेगा? नैयायिकः-वहां स्वरूप प्रतिभास होने पर भी स्पष्टावभास न होने से इन्द्रियसम्बन्ध का अनुमान नहीं हो सकता। जैन:-ऐसे तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा क्योंकि यह प्रतिभास स्पष्टावभासरूप नहीं है यह निश्चय तो इन्द्रियसम्बन्ध का अभाव निश्चित होने पर ही होगा, और इन्द्रिय सम्बन्ध का अभाव तब निश्चित होगा जब यह प्रतिभास स्पष्ट है ऐमा निश्चित होगा। अत: दो ज्ञानों में अवभासभेद का निश्चय विषय भेदमूलक ही है यह तो स्वीकारना पड़ेगा। किन्तु इसकी संगति, प्रत्यक्ष और शाब्दज्ञान को समानविषयक मानने पर नैयायिक मत में नहीं बैठ सकती। नैयायिक:-शाब्दबोध में वस्तुस्वरूप का अवभास तो होता है किन्तु वस्तुगत सकल विशेषताओं का अवभास नहीं होता है अत: शाब्दज्ञान स्पष्टप्रतिभासरूप नहीं होता। जैनः तब तो शाब्दज्ञान और प्रत्यक्ष में एकविषयता कहां रही ? भिन्नविषयता की ही सिद्धि हो गयी, क्योंकि अर्थक्रिया में समर्थ ऐसा विशेष, प्रत्यक्ष में भासित होता है किन्तु शाब्दज्ञान में भासित नहीं होता। नैयायिकः-नीलादि व्यक्ति का जो नीलत्वादि स्वरूप है वह तो एक रूप में ही दोनों स्थल में भासित होता है अतः विषयभेद नहीं है । हां, ज्ञान में आकारभेद जरूर है कि प्रत्यक्ष विशदाकार यानी स्पष्टाकार होता है और शाब्दज्ञान अविशदाकार होता है। जैनः-ऐसे तो ज्ञानावभास सिद्ध ही हो गया, क्योंकि आपके कथनानुसार इन्द्रिय संबद्ध विषय के प्रतिभास काल में ज्ञानगत स्पष्टाकारता भी भासित होती है और स्पष्टाकारता का प्रतिभास ही तो ज्ञानावभासरूप है । यदि ज्ञान भासित नहीं होगा तो विषय को देखकर 'स्पष्टाकार प्रत्यक्ष ज्ञान मुझे हो रहा है। यह कैसे कहा जा सकेगा? जो ज्ञान इन्द्रियसंनिकर्षादि विशिष्ट सामग्री से जन्य होता है वही विशदाकार होता है, अत: ज्ञानावभास के विना इन्द्रियसंबद्ध नीलादि के प्रतिभासकाल में आपकी मान्यता के अनुसार अन्य तो कोई विशदाकारताप्रतिभास का निमित्त सम्भव नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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