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________________ प्रथमखण्ड - का० १ - परलोकवाद: भासभेदाद् विषयभेदव्यवस्था न स्यात् । न हि बहिरपि तदवभासभेदसंवेदनव्यतिरेकेणान्यद् भेदव्यवस्थानिबन्धनमुत्पश्यामः । अन्यच्च, प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातु ं शक्यः - तस्यातीन्द्रियत्वात् - किंतु स्वरूपप्रतिभासात् कार्यात् तच्चाविकलं यदि शाब्देऽपि वस्तुस्वरूपं प्रतिभाति तदा तत एवेन्द्रियसम्बन्धस्तत्रापि किं नाभ्युपगम्यते ? अथ तत्र स्पष्टप्रतिभासाभावान्नासावानु मीयते । ननु तदभावस्तदक्षसंगतिविरहात्, तदभावश्व स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः तस्माद् विषयभेदनिबन्धन एवं ज्ञानप्रतिमास मेदावसायोऽभ्युपगन्तव्यः, स चैकविषयत्वे शब्दाऽध्यक्षज्ञानयोर्न संगच्छते । 1 ३४५ । संदर्भ:- [अब व्याख्याकार 'अपि च' इत्यादि से ज्ञान - ज्ञानान्तरवेद्यवादी नैयायिक की एक मान्यता दिखाकर उसके ऊपर आपत्ति देंगे नैयायिक जिस रीति से उसका प्रतिकार करेगा उसमें से ही व्याख्याकार ज्ञान की स्वप्रकाशता को फलित करेंगे यह अगले ही फकरे में 'तत्काल: स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास'.... [ पृ. ३४६-४ ] इत्यादि से स्फुट हो जायेगा ] [ प्रत्यक्षवत् शब्दज्ञान में स्पष्टप्रतिभास की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि प्रमाणसंप्लववादी नैयायिकों ने प्रत्यक्ष - शाब्दबोध को समानविषयक माना है । तात्पर्य यह है कि एक एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है या किसी एक की ही ? इसके उत्तर में न्यायभाष्य में कहा है कि दोनों प्रकार मान्य है । जैसे आत्मा के विषय में आप्तोपदेश भी प्रमाण है, इच्छादिलिंगक अनुमान भी प्रमाण है और योगसमाधिजन्य प्रत्यक्ष प्रमाण भी है । दूसरी ओर योग की स्वर्गकारणतादि में केवल आप्तोपदेश ही प्रमाण है- यहाँ अनेक प्रमाणों प्रवृत्ति नहीं होती । एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति को संप्लव कहते हैं और किसी एक ही प्रमाण की प्रवृत्ति को व्यवस्था कहते हैं । नैयायिक केवल व्यवस्थावादी नहीं किन्तु प्रमाणसम्प्लववादी है अतः नैयायिक विद्वानों ने सर्वत्र शाब्दबोध में प्रत्यक्ष की समानविषयता मान्य रखी है । अब 'तथा च'.... करके व्याख्याकार कहते हैं कि जब प्रत्यक्षज्ञान की तरह शाब्दबोध में भी न न्यून-न अधिक ऐसे विषय का बोध मानेंगे तो आपत्ति यह है कि प्रत्यक्ष और शाब्दबोध दोनों ज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा, फलतः शाब्दबोध भी प्रत्यक्ष की तरह स्पष्टावभासरूप हो जायेगा । नैयायिकः- एकविषयत्व दोनों में होने पर भी शब्दजन्यज्ञान के विषय में जो अवभास होगा वह प्रत्यक्षभिन्न ही होगा क्योंकि वहाँ इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं है । Jain Educationa International जैन:- जब इन्द्रियों का यही काम है- विषय का उद्भासन, यह कार्य जब शाब्दबोध से भी सम्पन्न होता है तो इन्द्रिय का सम्बन्ध भले न हो, शाब्दबोध को स्पष्टावभासरूप मानने में क्या बाध है ? विषयभेद के विना कहीं भी स्पष्ट अस्पष्ट इस प्रकार का अवभा-भेद युक्त नहीं है। वरना, ज्ञानावभास के भेद से जो विषयभेद की व्यवस्था यानी अनुमानादि किया जाता है वह नहीं हो सकेगा । उस अवभासभेद के विना बाह्यक्षेत्र के विषयों में भी भेदव्यवस्था करने के लिये कोई भी निमित्त नहीं दिखता है । तात्पर्य, प्रतीतिभेद से ही विषयभेद की व्यवथा सिद्ध होती है । यदि इन्द्रियसंनिकर्ष को भेदक मानेंगे तो प्रत्यक्षस्थल में 'यहां इन्द्रिय का संनिकर्ष है' ऐसा साक्षात् स्वरूप से तो कोई भी नहीं जान सकता क्योंकि इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय होने से तत्संनिकर्ष भी अतीन्द्रिय है, अत: प्रत्यक्षस्थल में विषय के स्वरूप का प्रतिभासरूप कार्य ही लिंगविधया इन्द्रियसंनिकर्ष का भान करा सकता है । अब देखिये कि जब शाब्दबोध स्थल में भी प्रत्यक्षवत् ही अविकल For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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