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प्रथमखण्ड - का० १ - सर्वज्ञवाद :
तदुक्तम् – "गोमानित्येव मयेंन माध्यमश्ववताऽपि किम् [ प्र० वा० ३ / २५ ] इति । देश-कालावस्थाभेदेन च भावानां नानात्वावगमादनाश्वासः । तदुक्तम् - *" अवस्था- देश - कालानाम् " [ वाक्य० १-३२ ] इत्यादि । आह च- 'अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्" [
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यच्च - 'सामान्यस्य तद्विषयस्याभावात्, स्वार्थ- परार्थभेदाऽसम्भवात् विरुद्धानुमान - विरोधयोः सर्वत्र सम्भवात् क्वचिच्च विरुद्धाऽव्यभिचारिण:' इत्यादि दूषणजालं - तदनुद्घोषणीयमेव, यतोऽनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वात् "अनुमानमप्रमाणम्" इत्यनुमानाऽप्रमाणताप्रतिपादने कृते शेषदूषणजालस्य मृतमारणकल्पत्वात् । ततोऽनुमानस्याऽप्रमाणत्वादतीन्द्रियपरलोक सद्भावप्रतिपादने कुतस्तस्य प्रवृत्तिः ?
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af का अनुमान हो जायेगा । अब यह जो अविनाभाव है उसका ज्ञान कैसे होगा ? अविनाभाव का मतलब यह है कि जहाँ जहाँ घूम हो उन सभी सपक्षों में अग्नि का होना और अग्नि जहाँ न हो वैसे विपक्षों में घूम का न रहना । ऐसे अविनाभाव के ज्ञान के लिये सभी सपक्षों का और विपक्षों का प्रत्यक्ष होना अनिवार्य बन गया, किन्तु असर्वज्ञ पुरुष के लिए वह सम्भव न होने से उसके लिये अविनाभाव दुर्ज्ञेय बन गया ।
यदि ऐसा कहें कि - 'सकल सपक्ष-विपक्षों का प्रत्यक्ष न होने पर भी अग्नि और धूम को बार बार एक स्थान में देखने से अविनाभाव का ज्ञान हो जायेगा' - तो यह अनेकबार दर्शन शरण्य नहीं है, चूँकि हजारों बार देखा हो कि पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व एकत्र रहता है फिर भी वज्र में लोहलेख्यत्व नहीं रहता है । [ अथवा कहीं अग्नि के रहने पर भी धूम नहीं होता है ] । यदि ऐसा कहा जाय कि - ' अनेकशः दर्शन नहीं किन्तु, धूम को देखने पर अग्नि को भी देखना और अग्नि को न देखने पर धूम को नहीं देखना, इसप्रकार के दर्शन और अदर्शन से अविनाभाव का निश्चय करेंगे' तो यह भी अयुक्त होने में वही युक्ति है कि पार्थिवत्व होने पर लोहलेख्यत्व देखते हैं और लोहलेख्यत्व न देखने पर पार्थिवत्व नहीं देखते हैं फिर भी वज्र में उसका भंग हो जाता है, अतः अविनाभावग्रह दुर्ज्ञेय है । जैसा कि प्रमाणवार्तिक में कहा गया है कि- 'क्या कोई पुरुष गो-स्वामी है इसलिये वह अश्व-स्वामी भी होना चाहिये ? [ ऐसा कोई नियम है
इत्यादि ।
दूसरी बात यह है कि जिन दो वस्तु के बीच अविनाभाव की कल्पना की जाती है उसमें पूर्ण आस्था रख नहीं सकते क्योंकि भावों में देशभेद से कालभेद से और अवस्थाभेद से वैचित्र्य का होना प्रसिद्ध है-जैसे: एक ही बीज इस देश में उपजाऊ भूमि के कारण बहु फलप्रद होता है, वही बीज उषर देश में कम फलप्रद होता है इत्यादि । वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा गया है कि - " पदार्थों की शक्ति अवस्था, देश और काल के भेद से भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, अत: अनुमान से उसका पता लगाना अति कठिन है ।" यह भी कहा गया है कि - " अविनाभाव सम्बन्ध का ग्रहण अशक्य होने से [ अनुमान कठिन है । ] "
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[ अनुमान में विरुद्धादि तीन दोनों की आशंका ]
int:-नास्तिक ने जो अनुमान दिखाया है कि "अनुमान अप्रमाण है क्योंकि अनिश्चितार्थप्रतिपादक है" इत्यादि, यह अनुमान मिथ्या है क्योंकि अनुमान मात्र के उच्छेद के लिये नास्तिक ने ऐसी प्रतिक्रिया दिखायी है कि - "अनुमान का विषय [ अग्निविशेष को मानेंगे तो उसके साथ व्याप्तिग्रह *अवस्था देश-कालानां भेदाद् भिन्नासु शक्तिषु । भावानामनुमानेन प्रतीतिरतिदुर्लभा ।। इति ।
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