________________
२८६
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१
एकदेशाश्रयणेनाऽपि रूप्यमयुक्तम् , व्याप्यसिद्धः । नहि सत्तामात्रेणाऽविनाभावो गमक अपि त्ववगतः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । स च सकलसपक्ष-विपक्षाऽप्रत्यक्षीकरणे दुर्विज्ञानोऽसर्वविदा । न चात्र भूयोदर्शनं शरणम्, सहस्रशोऽपि दृष्टसाहचर्यस्य व्यभिचारात् । अत एव न दर्शनाऽदर्शनमपि ।
पृथक् पृथक् सिद्धि अभिप्रेत हो तब तो स्पष्टरूप से सिद्धसाध्यता दोष लगेगा क्योंकि धर्मि पर्वत और धर्म अग्नि दोनों प्रसिद्ध ही है, इसलिये धर्म और धर्म के विशेषण-विशेष्यभाव घटित समुदायरूप प्रमेयविशेष को ही साध्य करना होगा [ द्रष्टव्य न्यायबिंदु परि० २ सू० ६ की टीका ] अन्यथा वह प्रमाण नहीं होगा क्योंकि प्रमाण का प्रामाण्य प्रमेयविशेष को विषय करने वाली प्रमा को उत्पन्न करने पर ही निर्भर होता है। [ तात्पर्य यह है कि 'सर्व ज्ञानं मिणि प्रमाणम्' इस प्रवाद के अनुसार भ्रमज्ञानसहित सभी ज्ञान मिमात्र में तो प्रमाण ही होता है अतः धर्मविशेष को विषय करने पर ही वास्तव में ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। ] यहाँ परस्पर संश्लिष्ट ऐसे पर्वत और अग्नि साध्य करते हैं, अर्थात् अग्निविशिष्ट पर्वत आपका साध्य है। इस साध्य की अपेक्षा धूम लिंग में पक्षधर्मत्व आदि एक भी रूप नहीं घट सकेगा क्योंकि धूम तो पर्वत में वृत्ति है जो कि समुदायात्मक पक्ष का ही एक अंश है अतः वह पक्षभूत नहीं है । अग्नियुक्त पर्वतरूप साध्य का कोई सपक्ष भी प्रसिद्ध नहीं है । धूम यद्यपि पर्वत का धर्म है किन्तु अग्निविशिष्ट पर्वत रूप समुदाय जो कि पक्ष है उसका धर्म तो नहीं है क्योंकि अग्निविशिष्ट पर्वत का निश्चय नहीं है । न उस ससुदाय के साथ उसकी अन्वयव्याप्ति या व्यतिरेक व्याप्ति सिद्ध है। यदि हेतु में पक्षधर्मता की प्रसिद्धि के लिये समुदाय में रूढ पक्षशब्द का पक्षकदेशरूप केवल धमि में उपचार करके धूम हेतु में पर्वतरूप धर्मी की अपेक्षा पक्षधर्मता का उपपादन किया जाय तो यह औपचारिक यानी गौण पक्षधर्मता हयी. वास्तविक नहीं। एवं व्याप्ति
व्याप्ति की प्रसिद्धि के लिये अग्निविशिष्टपर्वतरूप समदाय के एक देशभूत आग
निरूप साध्य के साथ धम की व्याप्ति मानी जाय तो यह भी औपचारिक यानी गौण व्याप्ति हुयी, वास्तविक न हुयी। अत: औपचारिक पक्षधर्मता और व्याप्ति से होने वाला अनुमान भी गौण ही होगा, वास्तव नहीं होगा। कहा भी है "प्रमाण गौणस्वरूप न होने के कारण अनुमान से अर्थ का निश्चय दुर्लभ है ।' तात्पर्य यह है कि प्रमाणभूत अर्थनिश्चय गौण नहीं वास्तव होता है, अनुमान वास्तव नहीं किन्तु उपरोक्त रीति से गौण है अत: उससे वास्तव अर्थनिश्चय अशक्य है।
___ यदि ऐसा कहें कि-'अनुमान से पर्वत और अग्नि में धमि-धर्मभाव का ग्रहण किया जाता है'तो यह कहने पर भी गौणता अटल रहती है क्योंकि गौण-मुख्यता के व्यवहार की चिन्ता तो जैसी प्रतीति हो उसके आधार पर की जाती है । प्रस्तुत में अग्नि विशिष्ट पर्वत रूप समुदाय की प्रतीति होती है अतः वही मुख्य है, उसकी अपेक्षा धर्मि-धर्मभाव के ग्रहण को गौण ही मानना होगा।
[ अविनाभाव का ग्रहण दुःशक्य ] यदि केवल एक देशरूप पर्वतादि धर्मी को ही वास्तव पक्ष मान कर के पक्षधर्मता आदि तीनरूपों की उसी से उपपत्ति करे तो भी वह युक्त नहीं है, क्योंकि केवल साध्यधर्म के साथ हेतु की व्याप्ति अनुपपन्न है । तात्पर्य यह है कि व्याप्ति का अर्थ है हेतु में साध्य का अविनाभाव। यह अविनाभाव साध्य में अज्ञात पडा रहे इतने मात्र से तो कभी अनुमान होता नहीं, अतः ज्ञात अविनाभाव की आवश्यकता माननी होगी अन्यथा जिस को व्याप्तिग्रह कभी नहीं हुआ ऐसे पुरुष को भी धूम देखकर
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org