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प्रथमखण्ड-का० १-सहजैश्वर्यवाद:
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व्यतिरिक्ता एतल्लक्षणयोगिनः, न पुनः शासनादिसर्वजगत्स्रष्टा ईश्वरः । तथा च पतञ्जलिः
क्लेश-कर्म-विपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" । [ यो० सू० १-२४ ]
अनेन सूत्रण रागादिलक्षणक्लेशशत्रुरहितत्वं सहजमीश्वरस्य प्रतिपादितम् , न पुनविपक्षभावनाद्यभ्यासव्यापाराव क्लेशादिक्षयस्तस्य, येन 'रागादीन स्वव्यापारेण जितवन्तः' इति वचः साथक तद्विषयत्वेन स्यात् । तथा चान्यैरप्युक्तम्'ज्ञानमप्रतिधं यस्य ऐश्वर्यं च जगत्पतेः। वैराग्यं चैव धर्मश्च सह सिद्धं चतुष्टयम्"।। [महाभा.वन./३०]
इत्याशंक्याह- भवजिणाणं' इति । भवन्ति नारक-तियंग-नराऽमरपर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते प्राणिनो. ऽस्मिन्निति भवः-संसार:, तद्धेतुत्वाद् रागादयोऽत्र 'भव'शब्देनोपचाराद् विवक्षिताः तं जितवन्त इति जिनाः। उपचाराश्रयणे च प्रयोजनम्-न ह्यविकलकारणे रागादावध्वस्ते तत्कार्यस्य संसारस्य जयः शक्यो विधातुमिति प्रतिपादनम् । भवकारणभूतरागादिजये चोपायः प्रतिपादित: प्राक, तदुपायेन च विपक्षरागादिजयद्वारेण तत्कार्यभूतस्य भवस्य जयः संभवति नान्यथेति । न ा पायव्यतिरेकेणोपेय
[अनादि सहज सिद्ध ऐश्वर्यबादी की आशंका ] जगत् का रचयिता ईश्वर है- इसमें विश्वास करने वाले वादीयों यहाँ एक आशंका व्यक्त करते हैं-आपने जो कहा..'शासन सर्वज्ञप्रतिपादित है और सर्वज्ञकथित होने के कारण ही वह प्रमाणभूत है'-- यह बात तो ठीक है: किन्तु यह जो आपने कहा-'राग-द्वेषादिशत्रुओं को जित लेने वाले जिन हैं' यह बात गलत है । कारण, यह सर्वज्ञ का लक्षण तो केवल सामान्य योगीवृद, जो कि ईश्वर से भिन्न हैं उसी में घट सकता है, शासन और तदितर समूचे जगत् का सर्जनहार जो ईश्वर है वह सर्वज्ञ होते हुए भी उसमें उपरोक्त लक्षण नहीं है [ तात्पर्य यह है कि ईश्वरकर्तृत्व वादी ईश्वर को अनादिसिद्ध सर्वज्ञ मानते हैं न कि पहले कभी वह राग-द्वेषाक्रान्त था और बाद में साधना से वीतराग-सर्वज्ञ बना हो ऐसा । अत: अनादिकाल से रागमुक्त होने के कारण वह रागादिविजेता नहीं है, फिर भी सर्वज्ञ तो उसे मानना है। ] जैसे कि पातञ्जल योगसूत्र में कहा है कि-"जो क्लेश, कर्म-उनके विपाक और विविध आशय-वासना से सर्वथा [सभी काल में ] अस्पृष्ट है ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही ईश्वर है।" इस सूत्रकथन के अनुसार ईश्वर में राग-द्वेषादिस्वरूप क्लेशात्मक शत्रु का सहज [ त्रैकालिक ] विरह सूचित होता है । इस में ऐसा नहीं कहा है कि रागादि के विपक्ष नीरागता आदि शुभ भावनाओं के अभ्यास के प्रयोग से ईश्वर ने क्लेशादि का क्षय किया, अतः आपका (ईश्वर के बारे में) यह वचन सार्थक नहीं है कि रागादि को अपने पुरुषार्थ से जितने वाले जिन [ सर्वज्ञ ] हैं।
____ अन्य विद्वानों ने भी ऐसा दिखाया है। जैसे कि महाभारतकार ने कहा है- "जिस जगदीश का ज्ञान, ऐश्वर्य, वैराग्य और धर्म अप्रतिघ यानी अस्खलित है-[यानी] ये चारों सहज सिद्ध हैं"।
[आशंका के उत्तर में 'भव जिणाणं' पद की व्याख्या ] ईश्वरवादीयों की इस आशंका का निराकरण करने हेतु सम्मतिशास्त्रकार ने 'भवजिणाणं' यह विशेषण (प्रथम कारिका में) प्रयुक्त किया है । भव शब्द का अर्थ है संसार, जहाँ प्राणिवर्ग नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन चार प्रकार के पर्यायों को धारण करते हुए जन्म पा रहे हैं । यद्यपि यहाँ उपचार का आश्रय लेकर 'भव' शब्द से राग-द्वेषादि शत्रु विवक्षित किये गये हैं क्यों कि नारकादिभव
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