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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्" ॥[ ] इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रतिपादित इति मन्वानेन आचार्येणापि न दृष्टान्तसूचनं विहितमत्र प्रयोगे।
__'कुसमयविशासनं' इति चात्र व्याख्याने बद्धाविशासनानामसर्वज्ञप्रणीतत्वप्रतिपादकत्वेन व्याख्येयम्-तथाहि कुत्सिताः प्रमाणबाधितैकान्तस्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेन, समयाः कपिलादिसिद्धान्ताः, तेषाम् “सन्ति पंच महाभया" [सूत्रकृ० १-१-१-७ ] इत्यादि वचनसंदर्भण दृष्टेष्टविषये विरोधाधुद्भावकत्वेन 'विशासनम' विध्वंसकं यतः प्रतो द्वादशांगमेव जिनानां शासनमिति भवत्यतो विशेषणात् सर्वज्ञविशेषसिद्धिरिति स्थितमेतत--जिनशासनं तत्त्वादेव सिद्धं = निश्चितप्रामाण्यमिति ।
[ईश्वरे सहजरागादिविरहनिराकरणम् ] प्रत्र ईश्वरकृतजगद्वादिनः प्राहः-युक्तमुक्त 'सर्वज्ञप्रणीतं शासनम् , तत्प्रणीतत्वाच्च तव प्रमाणम्' इति । इदं त्वयुक्तम्-'रागद्वेषादिकान शत्रून जितवन्तः इति जिनाः' । सामान्ययोगिन एवेश्वर
[दृष्टान्त के विना भी व्याप्ति का निश्चय ] ___ दृष्टान्तोपन्यास विना व्याप्ति का निश्चय कैसे होगा यह शंका निरर्थक है क्योंकि सर्वज्ञविरोधी मीमांसकवादिगण जैसे दृष्टान्त के विना भी साध्यधर्मी में ही व्याप्ति का निश्चय मान कर अर्थापत्ति के उत्थापक उस व्याप्तिमान् अर्थ से उत्थित अर्थापत्ति को प्रमाण मानते हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत में भी दृष्टान्त के विना ही अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट हेतु से उत्पन्न हमारे उक्त अनुमान का प्रामाप्य क्यों नहीं मानते ? अर्थापत्ति का तो अनुमान में ही अन्तर्भाव है यह पहले कह चुके हैं अत: अर्थापत्ति को प्रमाणमानने वाले वादी के समक्ष हमारे उक्त सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपत्ति हेतु से शासन में जिनप्रणीतत्व साध्य की सिद्धि अनिवार्य है । दृष्टान्त को अनावश्यक समझ कर ही पूर्वाचार्य ऋषिओं ने हेतु का लक्षण कहते समय अन्यथानु० इत्यादि कारिका के वचनसंदर्भ से एक ही लक्षण हेतु का कहा है-जैसे, जिस भाव में अन्यथानुपपत्ति है उसमें (पक्षसत्त्वादि) तीनरूप रहे या न रहे तो भी क्या और जिस भाव में अन्यथानुपपत्ति नहा है वहाँ भी तीन रूप के रहने न रहने से क्या (लाभ) ?-इस पूर्वाचार्य के मत के साथ पूर्णत: सम्मत सत्रकार आचार्यने भी उक्त अनुमान प्रयोग मे दृष्टान्त का सचन नहीं किया है।
[ 'कुसमयविसासण' का दूसरा अर्थ ] 'सिद्धार्थानाम्' इस विशेषण का जो अन्य अर्थ किया गया है, उस में 'कुसमयविसासणं' शब्द का अर्थ बहुत कुछ आ जाता है अतः 'कुसमयविसासणं' का इस पक्ष में दूसरा अर्थ लगाना जरूरी है वह अर्थ इस प्रकार है कि बुद्धादिशासन सर्वज्ञरचित नहीं है । जैसे देखिये 'कु' यानी कुत्सित अर्थात् गर्हणीय, गर्हणीय इसलिये कि प्रमाण से बाधित जो एकान्तभित अर्थ उनका प्रतिपादक हैं। ऐसे कुत्सित 'समय' यानी कपिल (सांख्यदर्शन प्रणेता) आदि रचित सिद्धान्त 'कुसमय' हैं । द्वादशांग जैन प्रवचन उन कुसमयों का 'विसासण' यानी विध्वंसन करने वाला है, क्योंकि-सूत्र कृतांग में "महाभूत पाँच हैं"....इत्यादिवचनसमूह से कपिलादि के सिद्धान्तों में दृष्टविरोध और इष्टहानि आदि दोषों का उद्भावन किया गया है। इससे यह फलित होता है कि द्वादशाँग प्रवचन जिनोपदिष्ट ही है । अत: इस विशेषण से 'जिन ही सर्वज्ञ है' यह बात सिद्ध हो जाती है। तदुपरांत, द्वादशांगरूप जिन शासन
जिनोक्त होने से ही सिद्ध यानी निश्चितप्रामाण्यवाला फलित होता है।
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