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________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञवाद: २६३ तेन यदुच्यते 'यदि स्वत एव कालस्यातीतादित्वं, पदार्थस्यापि तत् स्वत एव स्यात्' इति परेण, तत् सिद्धं साधितम् । तदतीतादिकालस्य सत्त्वान्न तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेः पदार्थस्याऽसत्त्वम् , वत्तमानकालसंबन्धित्वेन त्वतीतादेरसत्त्वप्रतिपादनेऽभिमतमेव प्रतिपादितं भवति, न ह्यतीतकालसंबन्धिस्वसत्त्वमेवैतज्ज्ञानकालसंबंधित्वमस्माभिरभ्युपगम्यते । न चैतत्कालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वे स्वकालसंबोधत्वेनाऽप्यतीतादेरसत्त्वं भवति, अन्यथतत्कालसंबन्धित्वस्याप्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वात सर्वाभावः स्यादिति सकलव्यवहारोच्छेदः । ___ अथापि स्यात्-भवत्वतीतादेः सत्त्वम् तथापि सर्वज्ञज्ञाने न तस्य प्रतिभासः. तज्ज्ञानकाले तस्याऽसंनिहितत्वात . संनिधाने वा तज्ज्ञानावभासिन इव वर्तमानकालसम्बन्धिनोऽतीतादेरपि वत्तमानकालसम्बन्धित्वप्राप्तेः । न हि वर्तमानस्यापि संनिहितत्वेन तत्कालज्ञानप्रतिभासित्वं मुक्त्वाऽन्यद् वत्तमानकालसम्बन्धित्वम् , एवमतीतादेस्तज्ज्ञानावभासित्वे वर्तमानत्वमेवेति वर्तमानमात्रपदार्थज्ञानवानस्मदादिवन्न सर्वज्ञः स्यात् । किं च, अतीतादेस्तज्ज्ञानकाले संनिहितत्वेन तज्ज्ञानेऽप्रतिभासः, प्रतिभासे वा स्वज्ञानसबंधित्वेन तस्य ग्रहणात् तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातिरूपताप्रसक्तिः।। दूसरी बात यह है कि यदि अतीतत्वादि को पदार्थ धर्म ही मान लिया जाय तो हमारे जैन मत में कोई हानि नहीं है क्योंकि हमारा इष्ट यही है कि अतीतादि काल यह एक प्रकार से पदार्थों का विशिष्ट परिणामरूप ही है । हमारे प्रशमरति शास्त्र में कहा भी है-“परिणाम, वर्तना, विधि और परापरत्व ये सब वस्तु के धर्मरूप है जिस को काल कहा जाता है" यह इस प्रकार-पदार्थ में 'स्मृतिविषयता' यही अतीतत्व है, 'अनुभव विषयता' यह वर्तमानत्व है, तथा पदार्थ में जो स्थिर अवस्था का दर्शन होता है उस को लिंग बना कर 'यह पदार्थ कालान्तरस्थायी है' इस प्रकार जो अनुमान उत्पन्न किया जाता है, ऐसे अनुमान की विषयतारूप धर्म ही पदार्थगत अनागतकालता है । [पदार्थों में स्वतः अतीत्वादि का भी संभव ] परवादी ने यह जो कहा है-काल का अतीतत्वादि यदि स्वत हो सकता है तो पदार्थों का भी अतीतत्वादि स्वतः हो सकता है [ पृ० २१८ ]-यह तो जो हमारे मत में चिर सिद्ध है उसी का साधन है । निष्कर्ष-अतीतादि काल का सत्व अबाधित होने से अतीतादिकालसंबंधितया अतीतादि पदार्थों का असत्त्व भी निधि है । यदि अतीतादि वस्तु को वर्तमानकालसंबंधितया असत् कहा जाय तो यह भी हमारे इष्ट का ही प्रतिपादन है। अत: पूर्वोक्त दूसरा विकल्प इष्ट सिद्धि से ही निराकृत हो जाता है। क्योंकि अतीतकालसंबन्धित्वरूप से सत्व और उसका ज्ञान जिस काल में हो रहा है तत्कालसंबन्धित्व, इन दोनों को हम एकरूप नहीं मानते हैं। यहाँ अवश्य आप को ध्यान देना चाहिये कि वर्तमानकालसंबंधितया जो असत् है वह स्वकाल (अतीतादि) संबंधितया भी असत् नहीं हो जाता । अन्यथा, वर्तमानकालसंबंधिता भी अतीतादिकालसंबंधितया असत् हो जायेगी तो वर्तमानकालसंबंधी सकल पदार्थ भी असत हो जाने से सभी प्रकार के सत् व्यवहार का उच्छेद ही हो जायेगा। इस से यह भी फलित हो जाता है कि अतीतादिविषयक सर्वज्ञज्ञान असत नहीं है। [ सर्वज्ञज्ञान में अतीतादि का प्रतिभास अशक्य-शंका ] अगर आप शंका करेंअतीतादि काल की सत्ता किसी प्रकार सिद्ध भले हो फिर भी सर्वज्ञ के ज्ञान में उसका प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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