________________
प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद:
२६१
विकल्पाभावेऽपि मन्त्राविष्टकुमारिकादिवचनवत् नित्यसमाहितस्यापि वचनसंभवाद् ‘विकल्पाभावे कथं वचनं'........इत्यादि निरस्तम् । दृश्यते चात्यन्ताभ्यस्ते विषये व्यवहारिणां विकल्पनमन्तरेणापि वचनप्रवृत्तिरिति कथं ततः सर्वज्ञस्य छानस्थिकज्ञानाऽऽसञ्जनं युक्तम् ? यदप्युक्तम् प्रतीतादेरसत्वात् कथं तज्ज्ञानेन ग्रहणम् , ग्रहणे वाऽसदर्थग्राहित्वात तज्ज्ञानवान भ्रान्तः स्याद्'........इत्यादितदप्ययुक्तत् । यत: किमतीतादेरतीतादिकालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वम् ? उत तज्ज्ञानकालसंबन्धित्वेन ? यद्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनेति पक्ष, स न युक्तः, वर्तमानकालसंबन्धित्वेन वर्तमानस्येव तत्कालसंबंधित्वेनातीतादेरपि सत्त्वसंभवात्।
___अथा तीतादेः कालस्याभावात् तत्संबंधिनोऽप्यभावः, तदसत्त्वं च प्रतिपादितं पूर्वपक्षवादिनाऽनवस्थेतरेतराश्रयादिदोषप्रतिपादनेन ।-सत्यम् , प्रतिपादितं न च सम्यक् । तथाहि-नास्माभिरपरातीता
[ लौकिक प्रत्यक्ष से कतिपय अर्थ ग्रहण ] सभी लोगों को प्रत्यक्ष से सर्वार्थग्रहण नहीं होता, फिर भी किसी प्रकार कुछ एक अर्थों का ग्रहण होता है । जैसे - 'यह बाष्पपटल नहीं है किन्तु धूम ही है' ऐसा धूमस्वरूप का बोध तभी होता है जब अग्नि से उसकी उत्पत्ति का भान हो । ऐसा नहीं मानेंगे तो बाष्पभिन्नरूप से धूमस्वरूप का निर्णय न होने से धूमादि का निःशंक व्यवहार नहीं हो सकेगा । नीलादिविषयक जो प्रतिभास होता है उसमें यदि बाह्यार्थनीलादि के संबंध का ग्रहण नहीं होगा तो बाह्यार्थ की प्रतीति ही विलुप्त हो जायेगी। इससे यह फलित होता है कि पदार्थ के स्वरूप का बोध एक या दूसरे रूप से अन्यसंबंधितागभित ही होता है । यह संबंधितारूप जो प्रमेय है उसकी प्रतीति अभ्यासकाल में हम लोगों को अनुमान से होतो है । जब अभ्यास परिपक्व हो जाता है अर्थात् क्षयोपशम खुल जाता है तब प्रत्यक्ष से भी अन्यसंबंधिता की प्रतीति हो जाती है। इस स्थिति में सर्वज्ञ को जब मुख्य मुख्य कुछ पदार्थों का वेदन मानने जायेगे तो सर्वपदार्थ का तत्संबंधितया वेदन क्यों नहीं सिद्ध होगा, जब कि पूर्वाचार्य की उक्ति द्वारा एक वस्तु के पूर्ण वेदन में सर्ववस्तु के वेदन का प्रतिपादन हम कर चुके हैं ।[पृ० २५९]
[ नित्यसमाधिदशा में भी वचनोच्चारसंभव ] यह जो आपने कहा था [ १० २१५] समाधिदशा में विकल्प होता नहीं तो विकल्पाभाव में वचन प्रयोग कैसे होगा ?....इत्यादि वह भी निरस्त हो जाता है क्योंकि मन्त्र के द्वारा संस्कृत बालिका आदि विकल्प के विरह में भी जैसे बोल देती है, उसी प्रकार नित्य समाधिमग्न रहने पर भी वचन प्रयोग संभव है। यह भी देखा जाता है-जिस विषय में परिपक्व अभ्यास हो जाता है, उस विषय में बोलने के पहले कुछ भी विकल्प न करने पर भी व्यवहारी सज्जनों की वचनप्रवृत्ति हो जाती है । अतः विकल्प के द्वारा सर्वज्ञात्मा में आवृतावस्थाकालीन ज्ञान का प्रसंजन कैसे उचित कहा जाय ? यह जो आपने कहा है [ पृ० २१५ ]-"अतीतादि वस्तु (या काल) तो असत् हो गये, अब ज्ञान से उसका ग्रहण कैसे होगा? यदि ग्रहण होगा तो वह ज्ञान, असत्पदार्थग्राही होने से तथाभूतज्ञानवान आत्मा भ्रान्तिवाला हो जायेगा।"....इत्यादि, वह भी अयुक्त है। कारण यह है कि आप अतीत पदार्थ को क्या अतीतकालसंबन्धि होने से असत् कहते हैं ? या अतीत वस्तु का ज्ञान जिस काल में किया जा रहा है उस (वर्तमान) काल का संबंधी होने से? यदि अतीतकालसंबंधी होने से अतीत वस्तु असत् होने का पक्ष माना जाय तो वह युक्त नहीं है । कारण, वर्तमान वस्तु जैसे वर्त
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org