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प्रथमखण्ड का ० १ सर्वज्ञवाद:
न च 'लंघनोदकत पादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्ज्ञानवैराग्यादेर्न परप्रकर्षप्राप्तिरिति कुतस्तद्विषये मिथ्याज्ञानाभावाद् रागावेरात्यन्तिकोऽनुत्पत्तिलक्षणः क्षयलक्षणो वाऽभावः ?' इति वक्तु ं युक्तम् । यतो लंघनं हि पूर्वप्रपत्नसाध्यं यदि व्यवस्थितमेव स्यात् तदोत्तरप्रयत्नस्यापरापरलंघनातिशयोत्पत्तौ व्यापारात् भवेल्लंघनस्याप्य ( न ? )पेक्षितपूर्वातिशयसद्भावप्रयत्नान्तरस्य प्रकर्षावाप्तिः, न चैवं, अपरापरप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयोत्पादने एवोपक्षीणशक्तित्वात् ।
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अथैतत् स्याद् - यदि तत्रापि पूर्वप्रयत्नोत्पादितोऽतिशयो न व्यवस्थितः स्यात्, तत्किमिति प्रथममेव यावल्लंघयितव्यं तावन्न लंघयति ? तत् लंघनाभ्यासापेक्षणात् पूर्वप्रयत्नाहितातिशयसद्भाasपि न लंघन प्रकर्षप्राप्तिरिति यथा तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता तथा ज्ञानस्यापि भविष्यति । न, यतः श्लेष्मादिना प्राक् शरीरस्य जाड्याद् यावल्लघयितव्यं न तावद् व्यायामाप्नपनीतश्लेष्माऽनासादितपटुभावः कायो लंघयति, अभ्यासासादितश्लेष्मक्षयपटुभावस्तु यावल्लंघयितव्यं तावल्लंघयतीत्यभ्यासः तत्र सप्रयोजनः । ज्ञानस्य तु योऽभ्याससमासादितोऽतिशयः सोऽतिशयान्तरोत्पत्तौ पुनः प्राक्तनाभ्यासापेक्षो न भवतीत्युत्तरोत्तराभ्यासानामपरापरातिशयोत्पादने व्यापाराद् न व्यवस्थितोत्कर्षतेति भवति
ज्ञानस्य परप्रकर्षकाष्ठा ।
[ लंघनवत् सीमित ज्ञानशक्ति की आशंका का उत्तर ]
यदि यह आशंका की जाय - " चाहे कितना भी अभ्यास करो किन्तु गर्तादि के उल्लंघन में अथवा जलताप आदि में कभी भी प्रकर्षावस्था ( यानी अग्निरूपता ) प्राप्त नहीं होती। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान अथवा वैराग्य का कितना भी गहरा अभ्यास = आसेवन किया जाय किन्तु कभी वह चरमप्रकर्ष प्राप्त नहीं हो सकता, तो फिर इस विषय में आप जो यह कहते हैं कि ज्ञानप्रकर्ष अथवा वैराग्योत्कर्ष से मिथ्याज्ञान का अभाव होगा और उसके अभाव से रागादि का, सर्वथा अनुत्पत्ति अथवा क्षय रूप ज्ञात्यन्तिक अभाव होगा यह कैसे घटेगा ? " तो यह कहना अयुक्त है क्योंकि प्रथम प्रयत्न करने पर जो लंघन सिद्ध होता है वह अवस्थित नही रहता, यानी उस प्रयत्न से जो लंघनशक्ति रूप अतिशयाधान किया जाता है वह लंघन के बाद क्षीण हो जाती है । यदि वह क्षीण न होकर अवस्थित रहती तब तो अन्य अन्य लंघनातिशय की उत्पत्ति में नये नये प्रयत्न का व्यापार संभव हो जाने से पूर्वातिशय के सद्भाव से विशिष्ट अन्य अन्य प्रयत्न के अवलम्बन करने वाला लंघन चरमप्रकर्ष प्राप्त हो सकता था। तात्पर्य यह है कि नये नये प्रयत्न से पूर्व पूर्व अतिशय उपचित होने के कारण प्रकर्ष की संभावना शक्यतारूढ थी । किन्तु पूर्व पूर्व प्रयत्न से उत्पन्न अतिशय चिरस्थायी नहीं होता, अत: नये नये प्रयत्न की शक्ति उसी पूर्व पूर्व अतिशय को पुनः पुनः उत्पन्न करने में क्षीण हो जाती है - यही कारण है कि लंघनातिशय प्रकर्ष प्राप्त नहीं होता ।
[ अतिशयितलंघन क्रिया में अभ्यास कैसे उपयोगी ? ]
कदाचित आप ऐसा कहेंगे कि "यदि यहाँ भी पूर्व पूर्व प्रयत्न से उत्पादित अतिशय चिरस्थायि न होकर अल्पजीवी होता तब तो वैसा समान अतिशय प्रथम प्रयत्न से उत्पन्न होने के कारण जितना अंतिम प्रयत्न से लम्बा कूदा जा सकता है उतना प्रथम प्रयत्न से भी क्यों नहीं कूदा जा सकता ? इससे यही सार निकलता है कि लंघनाभ्यास के अवलम्बन से पूर्व पूर्व प्रयत्न से नये नये अतिशय का आधान वाक्य टोने पर भी लंघन कदापि प्रकर्षावस्था प्राप्त नहीं करता । ( तात्पर्य, लंघन का
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