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________________ २२४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ ___ अथ कार्यादेव कारणस्य कारणत्वावगमोऽस्तु, कि नश्छिन्नम् ? ननु कार्यात कारणस्य कारणस्वावगमेऽनुमानाच्छपत्यवगमः, तत्र च तदपि कार्य लिंगभूतं यदि कारणशक्तिमवगमयति तदा शक्तिकार्ययोः प्रतिबन्धग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् , स च प्रतिबन्धावगमो न प्रत्यक्षादिति प्रतिपादितम् । अनुमानातदवगमे इतरेतराश्रयानवस्थादोषावतारोऽत्रापि समानः । अर्थापत्तेस्त्वनुमानेऽन्तर्भावः प्रतिपादितः । इति न प्रसिद्धानुमानस्यापि प्रवृत्तिर्भवदभिप्रायेण । अथ वह्निगतधर्मानुविधानाद् धूमस्य तत्पूर्वकत्वं कुतश्चित् प्रमाणात प्रसिद्ध मिति धूमत्वस्य तत्पूर्वकत्वव्याप्तिसिद्धिः । अन्यथा धमादग्न्यसिद्धेः सकललोकप्रसिद्धव्यवहाराभावः, अनुमानाऽभावे प्रत्यक्षतोऽपि व्यवहाराऽसंभवात् । तहि वचनविशेषस्यापि यदि विशिष्ट कारणपूर्वकत्वं तत एव प्रमाणात प्रसिद्धं विवादाध्यासिते वचने वचनविशेषत्वात साध्येत तदा कोऽपराधः ? ! के साथ नहीं होता। किंतु स्वमत में कारणता यह कारणस्वरूपाभिन्न कार्यपूर्वक्षणवृत्तितारूप ही नहीं किन्तु कार्यजन्मानुकुल कारणगत शक्ति रूप है । अब आपकी तो यह चिरपरिकल्पित मान्यता है कि कोई भी शक्ति प्रत्यक्षग्राह्य नहीं है किन्तु कार्यदर्शन से ही जानी जाती है। जैसे कि श्लोक वात्तिक में कहा है-"सर्वपदार्थों की शक्ति यह कार्य से प्रयुक्त अर्थापत्ति से जानी जाती है।" [ अनुमान में कार्यकारणभाव ग्रह की अशक्ति ] शंका:-आपने जो कहा कि कार्यदर्शन के उत्तर काल में कार्यकारणभाव का निश्चय होता है तो ऐसा सही, हम यह मान लेते हैं कि कार्य से ही कारण की कारणता अवगत होती है-इसमें हमारा क्या बिगडा? उत्तरः-अरे, आप इतना भी नहीं समझ पाये कि कार्य से कारणता का बोध मानने में तो शक्तिरूप कारणता कार्यलिंगक अनुमान गम्य हुयी-अब आपको यह मानना होगा कि यदि वह लिंग भूत कार्य से शक्तिस्वरूप कारणता का अनुमान होता है तो इसमें शक्ति और कार्य के बीच व्याप्ति पूर्वगृहीत अवश्य होनी चाहीये और यह व्याप्तिग्रह प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता यह तो हमने चिरपूर्व में कह दिया है। यदि अनुमान से व्याप्तिग्रह को मानेंगे तो व्याप्तिग्राहक अनुमान में भी व्याप्तिग्रह आवश्यक होने से नये अनुमान मानने जायेंगे तो अनवस्था होगी और पूर्वानुमान से उत्तरानुमानजनक व्याप्ति का ग्रह यदि मानेगे तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा- यह सब बात धूम और अग्नि के व्याप्तिग्रह में समान है । तथा यहाँ अर्थापत्ति से व्याप्तिग्रह की संभावना व्यर्थ है क्योंकि अर्थापत्ति का अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है यह तो विस्तार से कह दिया है। उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि पूर्वपक्षी यदि व्याप्ति ग्रह की असंभावना से सर्वज्ञ साधक अनुमान प्रवृत्ति का असंभव कहने जायेगा तो धूमहेतुक अग्नि का प्रसिद्ध अनुमान भी उसके मतानुसार उच्छेदाभिमुख हो जायेगा। [प्रसिद्धानुमानवत् सर्वज्ञानुमान में भी व्याप्तिग्रह का संभव ) शंकाः-धम अग्निअन्तर्गत धर्म का अनुसरण करता हआ दिखाई देता है अतः ऐसे किसी प्रमाण से धम में अग्निपूर्वकत्व निश्चित किया गया है, इस प्रकार धमत्व और अग्निपूर्वकत्व दोनों की व्याप्ति सिद्ध हो जायेगी । यदि यह नहीं मानेंगे तो धूम से अग्नि के अनुमान का भंग हो जाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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