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प्रथमखण्ड - का० १ - सर्वज्ञवाद:
श्रथ परिमलस्य लोचनाऽविषयत्वाद् नायं प्रत्यय: तज्जः, किन्तु गन्ध सहचरितरूप दर्शनप्रभवानुमानस्वभावः । तदेतत् प्रकृतेऽपि कार्यकारणभावे लोचनाऽविषयत्वं समानम् प्रत्ययस्य तु तदध्यवसायिनोऽपरं निमित्तं कल्पनीयम् । तन्न प्रत्यक्षतः सविकल्पकादपि धूम - पावकयोः कार्यकारणत्वावगमः । मानसप्रत्यक्षं तु तदवगमनिमित्तं भवता नाभ्युपगम्यते ।
श्रपि च कार्य कारणभावः सर्वदेशकालावस्थिताखिलधूमपावकव्य क्तिक्रोडीकरणेन श्रवगतोऽनुमाननिमित्ततामुपगच्छति न च प्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि सविकल्पकस्य निर्विकल्पकस्य वा व्यापारः संभवतीत्यसकृत् प्रतिपादितम् ।
किंच, न कारणस्य प्राग्भावित्वमात्रमेव बौद्धानामिव कारणत्वम् - येन तस्य कारणस्वरूपाभेदात् तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावस्य कारणत्वस्याऽप्यवगमः, केवलं कार्यदर्शनादुत्तरकालं तन्निश्चीयते किन्तु कारणस्य कार्यजननशक्तिः कारणत्वम् ; सा च शक्तिर्न प्रत्यक्षावसेया अपि तु कार्यदर्शन समवगम्या भवता परिकल्पिता । तदुक्तम् -
“शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थापत्तिगोचरा:" [ श्लो० वा० सू० ५ शून्य० - २५४ ] ततः कथं प्रत्यक्षात् कारणस्य कारणत्वावगमः ?
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[ कार्यकारणभावग्रह में प्रत्यक्षान्यनिमित्त की आवश्यकता ]
यदि यह कहा जाय कि " परिमल ( सुगन्ध ) नेत्र का विषय नहीं है अतः 'यह चंदन सुगन्धि है' इस प्रतीति को नेत्रजन्य हम नहीं कहते हैं किन्तु गन्ध ( स्मरण) से संकलित रूप का दर्शन होने पर उक्त 'यह चन्दन सुरभि है' इस प्रकार का अनुमान उत्पन्न होता है । तात्पर्य, यह बोध अनुमानस्वभावरूप है, प्रत्यक्षरूप नहीं है ।" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा तो कार्यकारणभाव में भी समान है - यहाँ भी कह सकते हैं कि कार्यकारणभाव नेत्र का विषय नहीं है । अतः अग्नि-धूम की प्रतीति में कारण- कार्यभाव का अध्यवसायी किसी अन्य निमित्त की कल्पना करनी होगी । अतः इतना तो सिद्ध हो गया कि प्रत्यक्ष से, चाहे वह सविकल्प भी क्यों न हो-धूम और अग्नि के कार्य-कारणभाव का अवगम शक्य नहीं है । यह तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष की बात हुयी, 'मानस प्रत्यक्ष कार्यकारणभाव ग्रहण का निमित्त है' यह तो आप भी नहीं मानते हैं ।
यह भी विचार किया जाय कि सर्वदेशकालवर्त्ती सकल धूम और अग्नि व्यक्तियों का प्रत्यक्षादि से कोडीकरण यानी संग्रहण द्वारा कार्य कारणभाव को यदि जान लिया हो तभी वह अनुमान का निमित्त यानी विषयतापन्न हो सकता है, किन्तु सविकल्प या निर्विकल्प प्रत्यक्ष की यह शक्ति ही नहीं है कि इतने बड़े धूम- अग्नि समुदाय वस्तु को क्रमशः या एक साथ वह ग्रहण करे। यह बात बार बार पहले भी कह दी गयी है ।
[ कारणता पूर्वक्षणवृत्तितारूप नहीं किन्तु शक्तिरूप है ]
दूसरी बात यह है कि बौद्धों की भाँति कारण की पूर्वक्षणवृत्तिता को ही कारणता नहीं कही जाती, यदि कारणता पूर्वक्षणवृत्तिता रूप ही होती तो कारणस्वरूप से वह अभिन्न होने के कारण, कारणस्वभावग्राहक निर्विकल्प प्रत्यक्ष से कारण (भिन्नस्वभाव कारणता का भी बोध मान लिया जाता, सिर्फ उसका निश्चयात्मक विकल्प कारण से कार्योत्पत्ति के दर्शन के उत्तरकाल में ही होता, कारणदर्शन
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