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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
अथ स्वरूपत एव कालस्यातीतानागत्वं तदा पदार्थानामपि स्वत एवातीतानागतत्वमस्तु किमतीतानागतकालसंबन्धित्वेन ? तच्च पदार्थस्वरूपमस्मदादिज्ञानेऽपि प्रतिभातीति नातीतानागतपदार्थग्राहित्वेनास्मदादिभ्यः सर्वज्ञस्य विशेषः । अपि च सम्बन्धस्यान्यत्र विस्तरतो निषिद्धत्वान्न कस्यचित केनचित्र सम्बन्ध इत्यतीतानागतादिसंबद्धपदार्थनाहिज्ञानमसदर्थविषयत्वेन भ्रान्तं स्यादिति न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्तः।
भवतु वा सर्वज्ञः, तथाप्यसो तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुं न शक्यते, तद्ग्राह्यपदार्थाऽज्ञाने तद्ग्राहकज्ञानवतः केनचित् प्रमाणेन प्रतिपत्तुमशक्तेः । तदुक्तम्--[ श्लो० वा० सू. २/१३४-३५ ]
सर्वज्ञोऽयमिति ह्य तत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ? ॥ कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा भवेयुर्बहवस्तव । य एव स्यावसर्वज्ञः स सर्वशं न बुध्यते ॥
न च तदपरिज्ञाने तत्प्रणीतत्वेनागमस्य प्रामाण्यमवगन्तुं शक्यम् , तदनवगमे च तद्विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिरप्यसंगता। तदुक्तम् - [ श्लो० वा० सू० २-१३६ ] के क्रिया की भूत भविष्यत्ता का आधार कौन है ? यदि अन्य अतीतानागतपदार्थक्रिया के सम्बन्ध से पूर्व पदार्थक्रिया में भूत-भविष्यत्ता मानी जाय तो यहाँ भी पुनः पुनः अन्य अन्य अतीतानागत पदार्थ क्रिया की अपेक्षा का अन्त नहीं आयेगा यानी अनवस्था होगी। तथा पदार्थक्रिया की भूत-भविष्यत्ता का आधार भूत-भाविकालसम्बन्ध को माना जायेगा तो काल की भूत-भविष्यत्ता पदार्थक्रिया पर अवलंबित होने से खुल्लमखुल्ला इतरेतराश्रय दोष लग जायेगा । सारांश, पदार्थों की भूत-भविप्यता कालसम्बन्ध से मानने का पहला पक्ष असंगत है।
[स्त्ररूपतः पदार्थों का अतीतत्वादि मानने में आपत्ति ] __ अगर दूसरे पक्ष में, काल की भूत-भविष्यत्ता को स्वरूपतः यानी स्वावलम्बी ही मान लिया जाय तो पदार्थों की भूत-भाविता भी स्वत: स्वावलम्बी ही भले हो, भूत-भाविकालसम्बन्ध द्वारा ही मानने की क्या जरूर ? इस विचार का तात्पर्य यह दिखाने में है कि जब पदार्थ की भूत-भविष्यत्ता स्वरूपतः ही है तब तो पदार्थस्वरूप का ही अपर नाम हुआ भूत-भविष्यत्ता और पदार्थ का स्वरूप तो हमारे ज्ञान में भी स्फुरित होता ही है तो फिर अतीतानागतकालीनपदार्थग्रहण को पुरस्कृत करके सर्वज्ञ की विशेषता यानी हमारे और सर्वज्ञ के ज्ञान का अन्तर दिखाना व्यर्थ है ।
दूसरी बात यह है कि-किसी भी दो पदार्थों के बीच किसी भी प्रकार के संबध के सद्भाव का अन्य स्थान में विस्तार से प्रतिषेध किया गया है उसका भी सार यह है कि किसी भी पदार्थ का अन्य किसी वस्तु के साथ कोई संबन्ध नहीं है अतः अतीत और अनागत काल के साथ सम्बन्ध से विशिष्ट पदार्थों का ग्राहक ज्ञान, सम्बन्धरूप असत् पदार्थ का विषयी होने से भ्रमात्मक सिद्ध होता है । अतः वैसे भ्रान्तज्ञान वाले सर्वज्ञ की वल्पना अनुचित है।
[ 'यह सर्वज्ञ है' ऐसा कैसे जाना जाय ?] कोई प्रमाण न होने पर भी क्षण एक सर्वज्ञ को मान लिया जाय, फिर भी जिस काल में सर्वज्ञ को आप मानते हैं उस काल में भी असर्वज्ञपुरुषों की यह शक्ति नहीं होती कि वे सर्वज्ञ को पीछान सके । कारण, सर्वज्ञान से ग्राह्य जो सर्व पदार्थ हैं उन सब का ज्ञान किये विना उन पदार्थों के ज्ञान करने वाले पुरुष को जानने में कोई प्रमाण समर्थ नहीं है । श्लोकवात्तिक में भी कह है
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