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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: २१७ किंच, अतीतानागतकालसंबन्धित्वात् पदार्थानामतीतानागतत्वम् । तद्धि भवत् किमपरातीतानागतकालसम्बद्धादभ्युपगम्यते आहोस्वित् स्वत एव ? यद्यपरातीततानागतकालसंबन्धात् कालस्यातीतानागतत्वं तदा तस्याप्यपरातीतानागतकालसम्बन्धादतीतानागतत्वम् , तस्याप्यपरस्मादित्यनवस्था। अथातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धात् कालस्यातीतानागतत्वं तेनायमदोषः । ननु पदार्थक्रियाणामपि कुतोऽतीतानागतत्वम् ? यद्यपरातीततानागतपदार्थक्रियासद्भावात् तदाऽत्रापि सैवानवस्था । प्रतीतानागतकालसम्बन्धात् पदार्थक्रियाणामतीतानागतत्वं तहि कालस्याप्यतीतानागतपदार्थक्रियासम्बन्धादतीतानागतत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । तन्न प्रथमः पक्षः । संवेदन में भले ही वह भ्रान्त हो । अतः स्वस्वरूप के संवेदनरूप सर्वज्ञज्ञान अभ्रान्त ही है। फिर सर्वज्ञ का अभाव कसे होगा ?'-तो इस पर यह प्रश्न खड़ा होगा कि जब वह सर्वज्ञज्ञान केवल अपने स्वरूप का ही साक्षात्कारि है तो वह अतीतादि जो अविद्यमान है उसके साक्षात्कार वाला कैसे होगा ? निष्कर्ष यह आया कि अतीत-अनागतादि पदार्थ विद्यमान न होने से उसका साक्षात्कार भी सम्भव न होने से अतीतादि का ग्रहण शक्य नहीं है, अतः कोई सर्वज्ञ भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब सर्वज्ञ का विकल्पज्ञान अपने स्वरूप का ही संवेदी है तो उसका अर्थ यह हुआ कि जिसका संवेदन होता है वह स्वरूपमात्र ही विद्यमान है, और कुछ भी नहीं। तो स्वरूपमात्र के वेदन में एकमात्र स्वरूपाद्वैत तत्त्व का ही वेदन सिद्ध होने से सर्वज्ञ का व्यवहार कैसे किया जायगा? यदि केवल स्वरूपाद्वैत का वेदन ही सर्वज्ञ व्यवहार का निमित्त हो तब तो हमआप आदि सब सर्वज्ञ हो जायेंगे। यदि यह कहा जाय-स्वप्न में जैसे अविद्यमान भी भावि पदार्थ का संवेदन होता है उसी प्रकार सर्वज्ञ को भी अतीत- अनागत सभी वस्तु का दर्शन होता है अतः उसका सर्वज्ञरूप में व्यवहार भी होता है'- तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, जो स्वप्नदर्शन सत्य होता है वह भी स्वरूपमात्र का ही यदि वेदन करता होगा तो उसके सत्य-असत्य होने का विवेक उसीसे नहीं होगा किन्तु अनुमान से करना होगा । क्योंकि सत्यस्वप्न का स्वरूप मवेदन अपने सत्यत्व-असत्यत्व का ग्राहक नहीं होता किन्तु अपने संवेदनात्मकस्वरूप के ग्रहण में ही वह पर्यवसित यानी चरितार्थ होता है । तात्पर्य, सर्वज्ञ ज्ञान स्वप्न ज्ञान के उदाहरण से यदि भूतभावि अर्थ दर्शन रूप मानेंगे तो उसके सत्य या असत्य होने का निर्णय अधूरा ही रह जायेगा। [ अतीतत्व और अनागतत्व की अनुपपत्ति ] यह भी विचारने योग्य है कि-पदार्थों की भूत-भविष्यत्ता भूतकाल और भविष्यकाल पर अवलम्बित है तो काल की भूत-भविष्यत्ता किसके ऊपर अवलम्बित है ? क्या अन्य भूतकाल-भविष्यकाल पर अवलम्बित कही जाय अथवा उसको स्वावलम्बी ही मानी जाय ? प्रथम पक्ष में यदि अन्य भूत-भविष्यकाल के सम्बन्ध को काल को भूत-भविष्यत्ता का आधार माना जाय तो उस अन्य कालद्रव्य की भूत-भविष्यत्ता का आधारभूत अन्य भूत-भविष्यकाल सम्बन्ध की कल्पना करनी होगी और उसके लिये भी अपर अपर भूत-भावि काल कल्पना का कहीं अन्त ही नहीं आयेगा। यदि ऐसा कहें कि काल की भूत-भविष्यत्ता तो भूत- भावि पदार्थों की क्रिया के सम्बन्ध से ( उदा० सूर्य-चन्द्र की क्रिया के सम्बन्ध से ) होती है । अतः पूर्वोक्त अनवस्था दोष निरवकाश है ।'-तो यहाँ भी प्रश्न है कि पदार्थों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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