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प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धि:
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ऽपरस्येति कुतो निश्चयः ? 'तदपेक्षया तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात तथाभूतानुपलब्ध्याऽभावनिश्चयः' इति चेत् ? एवं सति स एवेतरेतराश्रयदोषः-'सर्वज्ञत्वनिश्चये तदभावनिश्चयः, तदभावनिश्चये च सर्वज्ञत्वनिश्चयः' इति नैकस्यापि सिद्धिः । तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः ।
अथ यावदुपयोगि प्रधानभूतपदार्थजातं तावदसौ वेत्तीति तत्परिज्ञानात् सकलज्ञः, तदपि सर्वपदार्थावेदने नियमेन न संभवति, 'सकलपदार्थव्यवच्छेदेन तेषामेव प्रयोजननिर्वर्तकत्वम्' इति सकल. परिज्ञानमन्तरेणाऽशक्यसाधनमिति न तृतीयोऽपि पक्षो युक्तः।
किंच, नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावात कथं वचनम् ? वचने वा विकल्पसम्भवात समाधानविरोधान्न समाहितत्वमिति भ्रान्तछानस्थिकज्ञानयुक्तः स स्यात् । कथं वाऽतीतानागतग्रहणम् , अतीतादेः स्वरूपस्याऽसंभवात् ? असदाकारग्रहणे च तैमिरिकज्ञानवत प्रमाणत्वं न स्यात् । अथातीतादिकमप्यस्ति, एवं सत्यतीतत्वादेरप्यभाव एवेति सर्वज्ञव्यवहारोच्छेदः । अथ प्रतिपाद्यापेक्षया तस्याभावः, तदप्ययुक्तम् , नहि विद्यमानमेवापेक्षया तदैवाऽविद्यमानं भवति । 'तस्यानुपलब्धेरविद्यमानहै । कारण, शक्तियाँ सब अपने से उत्पादित कार्यात्मक लिंग से अनुमेय होती है अतः जब तक सकल पदार्थ का संवेदनात्मक कार्यलिग अनुपलब्ध रहे तब तक सर्वपदार्थग्रहण करने की शक्ति मान्य नहीं हो सकती। यह भी सोचिये कि कदाचित सर्वपदार्थ के ग्रहण में ज्ञान की परिसमाप्ति मान ली जाय, फिर भी उस ज्ञान से गृहीत पदार्थ “ये सब इतने ही हैं [ इन से अब कोई अधिक नहीं है ]" इस प्रकार के ज्ञान की शक्ति का निर्णय कैसे करोगे? यहाँ यह उत्तर दिया जाय कि 'उतने ही पदार्थों का वेदन होता है, अतिरिक्त किसी भी पदार्थ का संवेदन नहीं होता अत: उसका अभाव है यह निर्णय हो जायेगा'- तो यहाँ फिर से प्रश्न होगा कि अतिरिक्त किसी भी अर्थ का संवेदन न होने से उसका अभाव है- यह निश्चय कैसे हुआ? इसके उत्तर में यदि कहा जाय-जहाँ तक सर्वज्ञज्ञान का विचार है, सर्व पदार्थ 'अगर होता तो जरुर उपलब्ध होता' इस प्रकार उपलब्धिलक्षण प्राप्त ही होते हैं, फिर भी अतिरिक्त पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती इससे उनके अभाव का जायेगा'-तो यहाँ ऐसा मानने में स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष है-जैसे, सर्वज्ञता का निश अतिरिक्त पदार्थ का अभाव सिद्ध होगा और अतिरिक्त पदार्थ का अभाव सिद्ध होने पर सर्वज्ञता का निश्चय होगा' । फलतः दोनों में से एक की भी निरपेक्षसिद्धि नहीं होगी। सारांश, दूसरा विकल्प भी असंगत है।
[मुख्य-उपयोगी सर्वपदार्थ ज्ञान का असंभव ] तीसरे विकल्प में, यदि ऐसा कहा जाय-उपयोग में आने वाले मुख्य मुख्य पदार्थों के जितने समूह है उतने को वह जानता है और उतने पदार्थ के ज्ञान मात्र से ही वह सर्वज्ञ माना जाता है। यह भी संभव नहीं है क्योंकि समस्त वस्तु समूह को जाने विना कौन से पदार्थ उपयोगी एवं मुख्य हैइसका ज्ञान संभवबाह्य है। अन्य सकल पदार्थों को एक ओर रख कर 'इतने ही पदार्थ हमारे प्रयोजन के निष्पादक हैं' यह सर्व पदार्थ के ज्ञान विना सिद्ध नहीं किया जा सकता । अत: तीसरा विकल्प भी महत्त्वशून्य है।
[समाधिमग्न सर्वज्ञ का वचनप्रयोग असंभव ] यह भी तो सोचिये कि जब आप सर्वज्ञ केवलि को सदासमाहित यानी नित्य समाधिमग्न
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