________________
२१४
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
किं च यदि युगपत सर्वपदार्थग्राहक तज्ज्ञानं तदैकक्षणे एव सर्वपदार्थग्रहणाद् द्वितीयक्षणेऽकि. चिज्ज्ञ एव स्यात् , ततश्च किं तेन ताशाकिचिज्जन सर्वज्ञत्वेन ? न चानाद्यनन्तसंवेदनस्य परिसमाप्तिः, परिसमाप्तौ वा कथमनाद्यनन्तता? किंच, सकलपदार्थसाक्षात्करणे परस्थरागादिसाक्षात्करणमिति रागादिमानपि स स्याद् विट इव । अथ रागादिसंवेदनमेव नास्ति न तहि सकलपदार्थसाक्षात्करणम् । तन्न प्रथमः पक्षः।
अथ शक्तियुक्तत्वेन सकलपदार्थसंवेदनं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते, तदपि न युक्तम् , सर्वपदार्थावेदने तच्छक्तेमा॑तुमशक्तेः, कार्यदर्शनानुमेयत्वाच्छक्तीनाम् । कि च, सर्वपदार्थज्ञानपरिसमाप्तावपि 'इयदेव सर्वम्' इति कथं परिच्छेदशक्तिः ? अथ 'वेदनाऽभावादभावोऽपरस्येति सर्वसंवेदनम्। अवेदनादभावो
१. सर्वज्ञज्ञान से जो सर्ववेदन आप मानते हैं वह समस्त पदार्थों का ग्रहणरूप है ? या-२. समस्त वस्तु को ग्रहण करने की शक्तिमत्तारूप है ? अथवा ३. मुख्य मुख्य कई एक पदार्थों का ग्रहणरूप है ?
यदि प्रथम पक्ष पर सोचा जाय तो यहाँ भी बताईये कि A क्रम से सर्ववस्तु का ग्रहण होता है या B एक साथ हो ? यदि क्रम से सर्ववस्तु का ग्रहण माने तो उसमें कोई युक्ति नहीं है। क्योकि अतीत-अनागत और वर्तमान कालीन पदार्थों का कहीं भी अन्त न होने से क्रमशः सर्वपदार्थों को विषय करने वाले ज्ञान का भी अन्त नहीं आने से अनन्त काल की अवधि में भी सर्वपदार्थों का ग्रहण संभव नहीं है। यदि एक साथ अनन्त अतीत-अनागत पदार्थों को साक्षात् करने वाला सर्वज्ञज्ञान मानते हो तो वह भी ठीक नहीं है कारण, शीतस्पर्श उष्णस्पर्शादि जो परस्परविरुद्ध पदार्थ हैं उन का एक ज्ञान में एक साथ प्रतिभास संभवविरुद्ध है। यदि उसका संभव माना जाय, तो समुदितरूप से सर्ववस्तु का ज्ञान होने पर भी किसी भी प्रतिनियत अर्थ का प्रतिनियतरूप से ग्रहण करने वाला वह ज्ञान नहीं होगा, तो हम आदि व्यवहा को जो कई एक पदार्थों का विशेषरूप से ज्ञान होता है-उससे भी हीन कक्षा वाले उस ज्ञान से क्या प्रयोजन ? और वह सर्वज्ञ भी कैसा ?
[एक साथ सर्वपदार्थग्रहण की सदोपता] ___ यह भी सोचिये कि एकसाथ ही सर्वपदार्थ को ग्रहण करने वाला सर्वज्ञज्ञान होगा तो प्रथम क्षण में ही सभी पदार्थ को ग्रहण कर लेने से दूसरे क्षण में आपका सर्वज्ञ कुछ भी न जान पायेगा तो इस प्रकार के कुछ भी न जानने वाली उस सर्वज्ञता से क्या लाभ ? तथा जिस संवेदन का प्रारम्भ
और अन्त ही नहीं है ऐसे संवेदन की किसी भी विषय में परिसमाप्ति यानी परिपूर्णअर्थग्राहकता संभव नहीं है, यदि संभव हो तो उस संवेदन को अनादि-अनन्त कैसे कहा जायगा जो किसी एक अर्थ के ग्रहण में ही परिसमाप्त हो जाता हो? तथा जो सर्वार्थ का साक्षात्कार करेगा वह परपुरुषगतरागादि दोष का भी साक्षात्कार अवश्य करेगा, अतः वह भी ठग पुरुष की भाँति रागादियुक्त हो जायगा। तात्पर्य यह है कि ठग पुरुष जैसे परकीय कपट को पीछानता हुआ स्वयं भी प्रच्छन्न कपटी होता है वैसे आपका सर्वज्ञ भी परकीय कपटादि राग-द्वेष को पीछानता हुआ स्वयं कपटी-रागी-द्वेषी क्यों नहीं होगा। सारांश, सर्वपदार्थग्रहण वाले प्रथम पक्ष में कोई संगति नहीं है ।
[ सकलपदार्थसंवेदन की शक्तिमत्ता असंगत है ] दूसरे विकल्प में, यदि यह कहा जाय कि सर्वज्ञ का ज्ञान सर्व पदार्थों को ग्रहण करने में शक्तिशाली होता है, अत एव सर्वज्ञज्ञान को सकलपदार्थसंवेदी माना जाता है'-तो यह भी अयुक्त
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org