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________________ प्रथम खण्ड-का०१-सर्वज्ञवाद: १८१ न चाऽसिद्धो हेतुः । तथाहि-सकलपदार्थसाक्षात्कारिजानांगनालिगितः पुरुषः प्रत्यक्षसमधिगम्यो वाऽभ्युपगम्येत, अनुमानादिसंवेद्यो वा? न तावदध्यक्षगोचरः, प्रतिनियतसंनिहितरूपादिविषयनियमितसाक्षात्करणस्वभावा हि चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभाज्ञप्तयो न परस्थं संवेदनमात्रमपि तावदालम्बितुक्षमाः, किमङ्ग! पुनरनाद्यनन्तातीता-नागत-वर्तमानसूक्ष्मादिस्वभावसकलपदार्थसाक्षात्कारिसंवेदनविशेषम् , तदध्यासितं वा पुरुषम् ? अविषये चक्षुरादिकरणप्रवत्तितस्य ज्ञानस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् । सम्भवे वाऽन्यतमकरणप्रवत्तितस्याऽपि ज्ञानस्य रूपादिसकलविषयग्राहकत्वेन संभवात् शेषन्द्रियपरिकल्पना व्यर्था । न च सूक्ष्मादिसमस्तपदार्थग्रहणमन्तरेण प्रत्यक्षेण तत्साक्षात्करणप्रवृत्तज्ञानग्रहणम् , ग्राह्याऽग्रहणे तद्ग्राहकत्वस्यापि तद्गतस्य तेनाऽग्रहणात् । तदग्रहे च तद्धर्माध्यासितसंवेदनसमन्वितस्यापि न प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः । नाप्यनुमानतः सकलपदार्थज्ञप्रतिपत्तिः, अनुमानं हि निश्चितस्वसाध्यधर्म धर्मिसम्बन्धाद् हेतोरुदयमासादयत प्रमाणतामाप्नोति, प्रतिबन्धश्च समस्तपदार्थज्ञसत्वेन स्वसाध्येन हेतोः कि प्रत्यक्षेण अर्थात् वैसे पुरुष का किसी भी देश-काल में यत्किचित्स्वभावोपेत रूप में उपलम्भ नहीं होता। यह अनुपलब्धिरूप हेतु हुआ जिससे सर्वज्ञतया अभिप्रेत पुरुष में सद्व्यवहार का प्रतिषेध फलित होता है । [अनुपलब्धि हेतु की असिद्धि का निराकरण ] नास्तिक:- 'सर्वज्ञ सद्व्यवहारविषय नहीं है' इस साध्य की सिद्धि में हमने जो हेतु का उपन्यास किया है-वह हेतु असिद्ध भी नहीं है। वह इस प्रकार जिस पुरुष को आप सकलपदार्थ को साक्षात् करने वाले ज्ञान से आलिंगित मानते हो वह पुरुष १. प्रत्यक्षगोचर है ? २. या अनुमान से संवेद्य है ? १. प्रथम विकल्प-प्रत्यक्ष गोचर नहीं कह सकते । कारण, चक्षु आदि बाह्य करणभूत इन्द्रिय के व्यापार से उत्पन्न होने वाले विज्ञानों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे अमुक अमुक निकटवर्ती रूप पयों से नियमित यानी तन्मात्रविषयों काही साक्षात्कार करें, अन्य का नहीं, तो ऐसे विज्ञानों में जब परकीय ज्ञानमात्र को भी ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं है तो फिर अनादि-अनंत अतीतअनागत और वर्तमानकालीन सूक्ष्म व्यवहितस्वभाव वाले सकल पदार्थों को साक्षात् करने वाले संवेदन विशेष को या तथाभूतसंवेदनविशिष्ट पुरुष को ग्रहण करने का सामर्थ्य उन विज्ञानों में होने की बात ही कहाँ ? क्योंकि चक्षुआदिइन्द्रियजन्य ज्ञान की अपनी विषयमर्यादा के बाहर रहे हुये पदार्थ में ग्रहणप्रवृत्ति होने का सम्भव नहीं है। यदि चक्षु आदि कोई एक इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान में यह गुंजाइश होती तो पाँच में से किसी भी एक इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान रूपादि सकल विषयों के ग्राहकरूप में संभव होने से शेष चार इन्द्रिय की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी। यह भी विचारणीय है कि सर्वज्ञग्राही प्रत्यक्ष जब तक सूक्ष्म-व्यवहित समस्त पदार्थों का ग्रहण न कर लेगा तब तक उन पदार्थों को साक्षात् करने में प्रवर्त्तमान सर्वज्ञ के ज्ञान का भी ग्रहण न हो सकेगा। क्योंकि 'सर्वज्ञ का ज्ञान समस्तज्ञेयग्राही है' ऐसा ज्ञानगत समस्तज्ञेयग्राहकता का ज्ञान हमारे लिये तब तक असम्भव है जब तक हमारा ज्ञान समस्तज्ञेयग्राही न हो । यह तो प्रसिद्ध ही है कि हमारा ज्ञान सकलज्ञेयग्राही नहीं है, इसलिये सकलज्ञेयग्राहि संवेदन से समन्वितपुरुषविशेष का ग्रहण (प्रथम विकल्प में) प्रत्यक्ष से होने का सम्भव नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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