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________________ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ भविष्यन्तम्, सूक्ष्मम्, व्यवहितम् - एवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम्, नान्यत् किचनेन्द्रियम् " - इत्याद्यभिधानमसंगतं प्राप्नोतीत्युभयतः पाशारज्जुर्मीमांसकस्य । तत् स्थितमेतद् श्राचार्येण मीमांसकापेक्षया प्रसङ्गसाधनमेतदुपन्यस्तम्- यदि सिद्ध शासनमभ्युपगम्यते भवद्भिस्तदा जिनानां तत्-जिनप्रणीतम्अभ्युपगन्तव्यमिति । १८० [ सर्वज्ञवादप्रारम्भः ] अथ भवतु प्रेरणाप्रामाण्यवादिनां मीमांसकानामेतत् प्रसंगसाधनम्, ये तु तदप्रामाण्यवादिनचार्वाकास्तान् प्रति स्वप्रतिपत्तौ वा भवतः किं प्रमाणं ? न च प्रमाणाऽविषयस्य सद्व्यवहारविषयत्वं युक्तम् । तथा हि- 'ये देशकालस्वभावविप्रकर्षवन्तः सदुपलम्भकप्रमाणविषयभावमनापना भावाः न ते प्रेक्षावतां सद्व्यवहारपथावतारिणः यथा नाकपृष्ठादयस्तथात्वेनाभ्युपगमविषयाः, तथा च समस्तवस्तु विस्तारव्यापिज्ञानसंपत्समन्वित: पुरुष, इति सद्व्यवहारप्रतिषेधफलाऽनुपलब्धिः । है । अत: इस हेतु से अपौरुषेयत्व सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती । इससे यह सिद्ध होता है कि अपौरुषेयत्व का साधक कोई प्रमाण न होने से शासन ( आगम ) की अपौरुषेयता का कुछ भी संभव नहीं है, अत: यदि शासन को सर्वज्ञ- उपदिष्ट न माना जाय तो उसका प्रामाण्य कथमपि स्थिर नहीं रहेगा । ऐसा होने से मीमांसक जो भार देकर यह कहना चाहते हैं कि 'धर्म के विषय में प्रेरणा प्रमाण ही है' ऐसा प्रेरणा में प्रामाण्य के अयोग का व्यवच्छेद नहीं दिखा सकते क्योंकि सर्वज्ञ प्रमाण है । अब यदि प्रेरणा का प्रामाण्य सिद्ध करने के लिये उसके रचयिता सर्वज्ञ का स्वीकार किया जाय तब आप मीमांसकों का यह वचन असंगत हो जायगा कि "प्रेरणा ही भूत, वर्त्तमान, भावि, सुक्ष्म और व्यवहित ऐसे ऐसे अर्थों का बोध कराने में समर्थ है- दूसरा कोई इन्द्रियादि नहीं" [ मीमां. शाब. सू०२ में ] यह वचन असंगत हो जाने से मीमांसक दोनों ओर बन्धनरज्जु से बद्ध हो जायगा । समग्र वाद-विवाद का निष्कर्ष यह है कि 'जिनानां शासनम्' ऐसे प्रयोग से आचार्य दिवाकरजी ने मीमांसकों के समक्ष प्रसंगापादन किया है यदि शासन को आप सिद्ध यानी प्रमाणभूत मानते हैं तो उसको जिनों का यानी जिनेश्वर से विरचित है यह अवश्य मानना होगा । [ सर्वज्ञ की सत्ता में नास्तिकों का विवाद - पूर्वपक्ष ] नास्तिक:- विधिवाक्यात्मक वेद को ही प्रमाण मानने वाले मीमांसकों के प्रति 'जिनानां शासनम् ' यह कह कर जो आपने प्रसंगसाधन दिखलाया वह हो सकता है, क्योंकि वेद को हम भी प्रमाण नहीं मानते हैं । किन्तु, 'शासन का प्रणेता जिन सर्वज्ञ है' इसमें भी हमारा विवाद है, तो वेद को अप्रमाण मानने वाले जो चार्वाकमतवादी हैं उनके प्रति सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये आपके पास कौनसा प्रमाण है ? तथा आपने भी जो सर्वज्ञ का स्वीकार किया है उसके मूल में कौनसा प्रमाण है ? यदि उसमें कोई प्रमाण ही नहीं है तो उसको, सद्रूप में यानी 'वह विद्यमान है' इस रूप में व्यवहार का विषय बनाना युक्तिसंगत नहीं है । देखिये- जो पदार्थ देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट और स्वभावविप्रकृष्ट हैं [ यानी किसी भी देश में किसी भी काल में यत्किचित्स्वभावरूप में बुद्धि- अगोचर हैं ], तथा जो सत्पदार्थ के उपलभक प्रत्यक्षादि प्रमाण की विषयता से अनाश्लिष्ट हैं उनका बुद्धिमानों के द्वारा किये जाने वाले 'यह सत् है' इस प्रकार के सद्व्यवहाररूप मार्ग में अवतरण नहीं होता, जैसे कि देशकाल स्वभावविप्रकृष्टरूप में सर्वमान्य नाक पृष्ठादि ( स्वर्ग आदि) पदार्थ | समस्तवस्तुसमूहव्यापक ज्ञानसंपत्ति से समन्वित पुरुष भी देश-काल- स्वभाव से विप्रकृष्ट एवं सदुपलम्भकप्रमाणविषयता से अनाश्लिष्ट ही हैं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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