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प्रथमखण्ड-का० १-शब्दानित्यत्व०
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तदपनोदकाश्चान्छे तथाभूता एव व्यंजकाः परिकल्पनीयाः। तेषां चोभयरूपाणामपि शक्तिनानात्वं परिकल्पनीयम् । अस्मत्पक्षे तव सर्वमपि नास्तीति कथमदृष्टपरिकल्पना गुरू ?
पौद्गलिकत्वं च शब्दस्य अम्बरगुणप्रतिषेधप्रस्तावे प्रमाणोपपन्नं करिष्यत इत्यास्तां तावत् । यत पुनन्तित्वं शब्दार्थप्रत्ययस्याभिहितं तद् धमाल्लिगाल्लिगिप्रत्ययेन प्रत्युक्तम् । 'गत्वादिविशिष्टस्य गादेर्वाचकत्वमयुक्तम्, गत्व देः सामान्यस्याऽसम्भवाव' तदनन्तरं निराकृतम् । यत्र पुनरुक्तम्-'गादिव्यक्तिमात्रं गत्वादिविशिष्टं नोपपद्यते, तस्य सामान्यविशेषयोरन्यतरत्रान्तर्भावे एकत्र वाचकस्य नित्यत्वप्रसंगाद् , अन्यत्राउनाक्यात वाचकत्वाऽयोगात'-एतदसारम्, व्यक्तिमात्रस्य सामान्य विशिष्टस्य पूर्व वाचकत्वव्यवस्थापनात् । ता एव व्यक्तयोऽविवक्षिताऽसाधारणविशेषाः सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रशब्दाभिधेयाः।
किंच, कि वर्णानां नित्यत्वमभ्युपगम्यते, उत वर्णक्रमस्य, पाहोस्विद् वर्णाभिव्यक्ते , कि वा तत्क्रमस्य ? तत्र न तावत् अभिव्यक्तनित्यत्वं, तस्या निषिद्धत्वात्, अनिषेधेऽपि पुरुषप्रयत्नप्रेरितवायु
नहीं है ? तदुपरांत, आपके पक्ष में तो और भी कल्पनाओं का गौरव दोष लब्धप्रसर है: जैसे-वर्ण की पूर्वकोटि और अपर कोटि के सत्व की, जो किसी भी देश में प्रत्यक्षतः उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी होगी। उसके आवारक शान्त वाय की, जो प्रमाण से उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी पडेगी। तथा उस वायु के अपसारक वायु भी प्रमाण से उपलब्ध नहीं है उनकी व्यंजकरूप में कल्पना करनी होगी। तथा, दोनों वायु समान होने पर भी उनके अलग-अलग सामर्थ्य की कल्पना करनी होगी। हमारे पक्ष में ऐसा कुछ भी नहीं है तो अदृष्ट कल्पना का गौरव कैसे होगा?
[सादृश्य से अर्थबोधपक्ष में दी गयी आपत्तिओं का प्रतीकार] 'शब्द पौद्गलिक है' इस तथ्य की प्रमाण से उपपत्ति शब्द के आकाशगुणत्व के निराकरण के अवसर में की जायेगी-उस को अभी रहने दो। किंतु आपने यह जो कहा था 'सादृश्य से अर्थ
नने पर शब्द से उत्पन्न अर्थबोध भ्रमातक होगा' इसका तो. धमात्मक लिंग से लिंगी यानी अग्नि का बोध होता है कितु वह प्रान्त नहीं होता है इसलिये प्रत्युक्त यानी प्रत्युत्तर हो जाता है । तात्पर्य, सदश शब्द से अर्थबोध भीमाात नहीं कहा जा सकता । तथा, 'गत्वादिविशिष्ट गकारादि को वाचक मानना अयूक्त है क्योंकि गत्वादि सामान्य का असंभव है' यह जो कहा था वह भी गत्वादि सामान्य का संभव प्रदर्शित कर देने से निराकृत हो जाता है । तथा यह जो कहा था-'गत्वादि विशिष्ट गकारादि व्यक्ति मात्र वाचक नहीं हो सकता क्योंकि यदि उसको सामान्यान्तर्भूत मानेंगे तो नित्य की ही वाचकता फलित होगी और विशेषान्तर्यंत मानेगे तो उसका अर्थ के साथ संकेतादि अन्वय घटित नहीं होने से वाचकत्च न होगा'- यह भी सारहीन उक्ति है। क्योंकि पहले ही हमने सामान्यविशिष्ट गकारादि व्यक्ति की वाचकता का उपपादन कर दिया है। आशय यह है कि हम सामान्य-विशेष को अत्यन्त भिन्न नहीं मानते किंतु व्यक्तिअन्तर्गत असाधारण विशेष की जब विवक्षा छोड दे तब उन्हीं व्यक्तिओं को 'सामान्य विशिष्ट व्यक्तिमात्र' कहा जाता है।
[अपौरुषेयवादी वर्णादि चार में से किसको नित्य मानेगा ?] यह भी विचारणीय है-A क्या आप वर्णों को नित्य मानते हैं ? B या वर्णक्रम को? अथवा C वर्णाभिव्यक्ति को ? या D अभिव्यक्ति के क्रम को ?
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