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प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता
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अथ साध्यमिणि तनिश्चय इत्यनुमानात पृथगपत्तिः ? तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-कुतः प्रमाणात् तस्य तनिश्चयः ? यदि विपक्षेऽनुपलभ्भात , तन्न युक्तम् , सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धत्वप्रतिपादनात् । प्रात्मसंबंधिनस्तु अनैकान्तिकत्वादिति नान्यथानुपपद्यमानत्वनिश्चयः ।
किं च प्रर्थापत्त्युपस्थापकस्यार्थानुभूयमानतालक्षणस्यार्थधर्मस्य य एष स्वप्रकल्प्यार्थाभावेऽवश्यंतयाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः, स एव स्वप्रकल्प्याथसद्भावे एवोपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यर्थापत्युपस्थापकस्यार्थस्य स्वसाध्यानुमापकस्य च लिगस्य न कश्चिद्विशेष इत्यनुमाननिरासेऽर्थापत्तेरपि निरासः कृत एवेति नार्थापत्तेरपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणनिश्चायकत्वम् ।
उत्तरपक्षी:- यहाँ भी आपके सामने दो विकल्प है- आपको कहना होगा कि अर्थधर्म की अन्यथानुपपत्ति का निश्चय आपने कहाँ किया ? [A] दृष्टान्त के धर्मों में ? ( या [B] साध्यधर्मी में ? ) A यदि दृष्टान्त में जिस का धर्मारूप से निर्देश किया जाता है वहाँ अन्यथानुपपत्ति का निश्चय होने का कहेंगे तो ऐसा ही अनुमान में होता है, अर्थात् अनुमान में भी दृष्टान्तधर्मी में ही लिंग का साध्य के साथ नियतत्व का निश्चय होता है तो आपकी अर्थापत्ति अनुमानरूप ही बन गयी । अर्थात् अनुमान के गृह में अर्थापत्ति चली आयी, अनुमान से पथक न रही, तो फिर से एक बार आपका षट्प्रमाणवाद का स्वीकार हत-प्रहत हो जायेगा।
[साध्यधर्मि में अन्यथानुपपत्ति का निश्चय किस प्रमाण से १] [B] यदि कहें कि- साध्य को जहाँ सिद्ध करना है उस धर्मी में अर्थधर्म की अन्यथानुपपत्ति का निश्चय वाला दूसरा पक्ष मानेंगे, इसलिये अर्थापत्ति अनुमान से पृथग होगी-तो यहाँ भी व्यापारवादी को उत्तर देना होगा कि साध्यधर्मी में किस प्रमाण से अन्यथानुपपत्ति का निश्चय किया ? इसके उत्तर में यह कहना युक्त नहीं है कि विपक्ष में यानी साध्यशून्य स्थल में अर्थधर्म का अनुपलम्भ होने से उसकी अन्यथानुपपत्ति का निर्णय हुआ । युक्त इसलिये नहीं है कि साध्यशून्य विपक्ष में सभी प्रमाता को अर्थधर्म के अनुपलम्भ का निश्चय होता है यह कहना शक्य न होने से वह असिद्ध है यह कहा गया है । व्यापार वादी के ही केवल विपक्ष में अनुपलम्भ से अन्यथानुपपत्ति का निश्चय नहीं माना जा सकता क्योंकि विपक्ष में अर्थधर्म की सत्ता होने पर भी किसी दोष वश उसका उपलम्भ व्यापारवादी को न होने से व्यापार वादी का अनुपलम्भ अनैकान्तिकदोष से घिरा हुआ है ।
[अर्थापत्तिस्थापक अर्थ और लिंग में ताविकभेद का अभाव ] दूसरी बात यह है कि-'अर्थापत्ति का उत्थान करने वाला अर्थानुभूयमानतास्वरूप अर्थधर्म अपने द्वारा कल्पनीय व्यापाररूप अर्थ के विना नियमत: अनुपपद्यमान है' इस प्रकार का निश्चय और दूसरी ओर, 'वह अर्थधर्म अपने द्वारा कल्पनीय व्यापाररूप अर्थ के होने पर ही उपपद्यमान है' इस रीति का निश्चय, इन दो निश्चियों में एक निश्चय व्यतिरेक मुखी है और दूसरा अन्वयमुखी है किन्तु दोनों एक ही अर्थ के निश्चायक होने से उन दोनों में कोई भेद नहीं है-दोनों एक ही है। तथा अपने साध्य को सिद्ध करने वाला लिंग भी उपरोक्त प्रकार से अन्वय-व्यतिरेक आधार पर अवलम्वित है। तो अर्थापत्ति का उत्थान करने वाला अर्थ (अर्थानुभूयमानता) और अपने साध्य को सिद्ध करने वाला लिंग [ हेतु ] इन दोनों के बीच क्या अन्तर रहा ? कुछ नहीं। अत: ज्ञातृव्यापार ग्राहक अनुमान का ही जब खंडन हो चुका है तो अर्थापत्ति का भी खंडन हो ही जाता है।
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